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________________ ५०८ कातन्त्रव्याकरणम् १२७६. आद्भ्यो य्वदरिद्रातेः [४।५।१०४] [सूत्रार्थ] कृच्छ्राकृच्छार्थक 'ईषद्' आदि शब्दों के उपपद में रहने पर आकारान्त धातओं से 'यु' प्रत्यय होता है, दरिद्रा धातुको छोड़कर।।१२७६। [दु० वृ०] ईषदादिषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषूपपदेषु आकारान्तेभ्यो युर्भवति अदरिद्रातेः। ईषत्पान:, दुष्पान:, सुपानः। अदरिद्रातेरिति किम्? ईषद्दरिद्रः ।। १२७६। [समीक्षा] 'ईषत्पानः' इत्यादि शब्दों की सिद्धि कातन्त्रकार ने 'यु' प्रत्यय से तथा पाणिनि ने 'युच्' प्रत्यय से की है – “आतो युच्' (अ० ३।३।१२८)। पाणिनि का 'च' अनुबन्ध चित्स्वर के विधानार्थ है, कातन्त्र में स्वरविधान नहीं है। अत: सामान्यतया उभयत्र समानता ही कही जाएगी। [रूपसिद्धि] १-३. ईषत्पानः। ईषद् + पा - यु - अन + सि। दुष्पानः। दुस् - पा - यु - अन + सि। सुपानः। सु + पा + यु - अन + सि। 'ईषद् - दुस् - सु' के उपपद में रहने पर 'पा' धातु से 'यु' प्रत्यय, 'अन' आदेश तथा विभक्तिकार्य।। १२७६। १२७७. शासुयुधिदृशिधृषिमृषां वा [४।५।१०५] [सूत्रार्थ कृच्छ्राकृच्छ्रार्थक 'ईषद्' इत्यादि के उपपद में रहने पर 'शास् - युध् - दृश् - धृष् - मृष्' धातुओं से 'यु' प्रत्यय विकल्प से होता है।।१२७७। [दु० वृ०] ईषदादिषूपपदेषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु एषां युर्भवति वा। ईषच्छासनः, ईषच्छासः। दुःशासन:, दुःशास:। सुशासनः, सुशासः। एवम् ईषद्योधनः, ईषद्योध:। दुर्योधन:, दुर्योधः। सुयोधनः, सुयोधः। ईषद्दर्शनः, ईषदर्शः। दुर्दर्शनः, दुर्दर्शः। सुदर्शनः, सुदर्शः। ईषद्धर्षणः, ईषद्धर्षः। दुर्धर्षणः, दुर्धर्षः। सुधर्षणः, सुधर्षः। ईषन्मर्षण:, ईषन्मर्षः। दुर्मर्षणः, दुर्मर्षः। सुमर्षणः, सुमर्षः। वा-ग्रहणात् स्यधिकारात् परेषु न वाऽसरूपविधिरिति।।१२७७। [वि० प०] शासु०। अथ किमर्थं वाग्रहणम् ? युरेव विधीयताम् । पक्षे "वाऽसरूपोऽस्त्रियाम्' (४।२।८) इति खल् भविष्यतीत्याह - वाग्रहणादिति। अन्यथा आकारान्तेभ्योऽपि खल् स्यादिति भावः।।१२७७।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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