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कातन्त्रव्याकरणम्
३।३।७६)। इस प्रकार प्रत्ययगत अनुबन्धभेद के अतिरिक्त अन्य प्रकार की तो उभयत्र समानता ही है ।
[रूपसिद्धि]
१. वधः। हन् -वध् +अल् +सि । हननम् । 'हन् हिंसागत्योः ' (२।४) धात् से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अल् 'प्रत्यय, ‘वध् ' आदेश तथा विभक्तिकार्य ।।१२२९।
१२३०. मूर्ती घनिश्च [४।५।५८] [सूत्रार्थ
मूर्ति अर्थ में 'हन् ' धातु से अल् प्रत्यय तथा ‘हन्' को 'घन् ' आदेश भी होता है ।।१२३०।
[दु० वृ०]
मूर्तिः काठिन्यम् । मूर्तावर्थे हन्तेरल् भवति घनिरादेशश्च। दध्नो घन:. घनं दधीत्यभेदात् ।।१२३०।
[समीक्षा द्र०, सूत्र-सं० १२२९ । पाणिनिसूत्र- “मूर्ती घन:' (अ० ३।३।७७)। [रूपसिद्धि]
१. घनः, घनम् । हन् + अल् + सि, अम् । 'हन हिंसागत्योः ' (२।४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अल् ' प्रत्यय, हन् को 'घन् ' आदेश तथा विभक्तिकार्य ।।१२३०।
१२३१. प्राद् गृहैकदेशे घञ् च [४।५।५९] [सूत्रार्थ
'गृहैकदेश' अर्थ में 'प्र' उपसर्ग-पूर्वक 'हन् ' धातु से 'अल् -घञ् 'प्रत्यय तथा 'हन् ' को 'धन्' आदेश भी होता है ।।१२३१।।
[दु० वृ०]
प्राद हन्तेरल भवति घञ् च। घनिरादेशश्च गृहैकदेशेऽर्थे । प्रघणः, प्रघाणः। गृहस्य द्विधाकृतस्य द्वारप्रकोष्ठाभ्यां यो बहिर्भूतः, तत्रापीति वचनाण्णत्वम् ।।१२३१।
[समीक्षा
कातन्त्रकार 'प्रघण:' शब्द की सिद्धि 'अल् ' प्रत्यय से एवं 'प्रघाण:' शब्द की सिद्धि ‘घञ् ' प्रत्यय से करते हैं, जबकि पाणिनि ने इनकी सिद्धि निपातनविधि से की है— “अगारैकदेशे प्रघण: प्रघाणश्च'' (अ० ३।३।७९) । यहाँ पाणिनीय निपातनविधि की अपेक्षा कातन्त्रकार द्वारा किए गए स्पष्ट 'प्रत्यय-आदेश' के विधान में सरलता तथा लाघव कहा जा सकता है ।