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________________ चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घञादिपादः ४६१ [रूपसिद्धि] + अद् घस्ल १- २. प्रघसः । प्र + अद् - घस्लृ + अल् + सि। विघसः । वि + अल् + सि। ‘प्र-वि' उपसर्ग-पूर्वक 'अद भक्षणे' (२।१) धातु से 'अल्' प्रत्यय, 'घस्लृ' आदेश तथा विभक्तिकार्य ।। १२१४। १२१५. नौ ण च [४।५।४३] [दु० वृ०] नावुपपदेऽदेरल् णश्च भवति । निघसः, न्यादः । । १२१५। — [सूत्रार्थ] 'नि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'अद्' धातु से 'अल् ण' प्रत्यय होते हैं । । १२१५ । [क० च० ] नौ०। चकारोऽनुक्तसमुच्चयमात्रे, तेनात्रालोऽनुवृत्तिर्न प्रत्ययस्य सम्बन्धात् ॥१२१५। [समीक्षा] 'न्यादः' प्रयोग के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'ण' प्रत्यय किया है, परन्तु 'निघसः' शब्द की सिद्धि के लिए कातन्त्रकार अल् प्रत्यय एवं पाणिनि 'अप्' प्रत्यय करते हैं—“नौ ण च” (अ०३।३।६० ) । अत: 'ल् - प्' अनुबन्धभेद को छोड़कर शेष तो उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि] १. न्यादः, निघसः । नि अद् + ण सि। 'नि' उपसर्ग-पूर्वक 'अद भक्षणे' (२१) धातु से 'ण' प्रत्यय, उपधासंज्ञक अकार को दीर्घ, इकार को यकारादेश तथा विभक्तिकार्य। ‘अल्’ प्रत्यय के होने पर घस्लृ आदेश से 'निघसः' शब्दरूप सिद्ध होता है।। १२१५। १२१६. मदेः प्रसमोहर्षे [४।५।४४ ] [सूत्रार्थ] हर्ष अर्थ में ‘प्र-सम्’ उपसर्गों के उपपद में रहने पर 'मदी हर्षे' ( ३।४८) धातु से 'अल्' प्रत्यय होता है ।। १२१६ । [दु० वृ०] प्रसमोरुपपदयोर्मदेरल् भवति हर्षेऽर्थे। प्रमदः कन्यानाम् । सम्मदः कोकिलानाम्। प्रसमोरिति किम् ? उन्मादश्छात्राणाम् ॥ १२१६ । [समीक्षा] हर्ष अर्थ में 'प्रमदः, संमदः' शब्द दोनों ही व्याकरणों में सिद्ध किए गये हैं । अन्तर यह है कि कातन्त्रकार इन्हें 'अल्' प्रत्यय से सिद्ध करते हैं। जबकि पाणिनि
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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