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________________ ४६२ कानन्त्रव्याकरणम् ने निपातनविधि से उन्हें सिद्ध किया है— “प्रमदसंमदौ हर्षे' (अ० ३।३।६८)। अत: अपने अपने व्याकरणों की प्रक्रिया के अनुसार भेद होने पर भी फल की दृष्टि से प्राय: समानता ही है। [रूपसिद्धि] १-२. प्रमदः। प्र + मदी + अल् + सिसंमदः। सम् + मदी - अल् + सि। 'प्र-सम्' उपसर्ग-पूर्वक ‘मदी हर्षे' (३।४८) धातु से 'अल्' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१२१६। १२१७. व्यधिजपोश्चानुपसर्गे [४।५।४५] [सूत्रार्थ उपसर्ग के उपपद में न रहने पर 'व्यध् - जप् - मद्' धातुओं से 'अल्' प्रत्यय होता है।।१२१७। [दु० वृ०] अनुपसर्गे व्यधिजपिभ्यां मदेश्चात् भवति। व्यधः, जपः, मद:। अनुपसर्ग इति किम् ? आव्याधः, उपजापः, प्रमादः।। १२१७। [समीक्षा] _ 'व्यधः, जपः, मदः' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र द्वारा 'अल्' प्रत्यय किया है, जबकि पाणिनि दो सूत्रों से 'अप्' प्रत्यय द्वारा इन्हें सिद्ध करते हैं – “व्यधजपोरनुपसर्गे, भदोऽनुपसर्गे'' (अ०३।३।६३,६७)। अत: पाणिनीय गौरव तथा कातन्त्रीय लाघव स्पष्ट है। [रूपसिद्धि] १-३. व्यधः। व्यध् + अल् + सि। जपः। जप् + अल् + सि। मदः। मद् + अल् + सि। 'व्यध् - जपे - मद्' धातुओं से अल् प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१२१७। १२१८. स्वनहसोर्वा [४।५।४६] [सूत्रार्थ] उपसर्ग के उपपद में न रहने पर 'स्वन् - हस्' धातुओं से वैकल्पिक ‘अल्' प्रत्यय होता है।।१२१८॥ [दु० वृ०] अनुपसर्गे आभ्यामण भवति वा। स्वनः, स्वानः। हसः, हास:। अनुपसर्ग इति किम् ? प्रस्वानः, प्रह्मसः।।१२१८। [समीक्षा] 'स्वनः-स्वानः' इत्यादि दो - दो शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में वैकल्पिक अल् - अप् प्रत्यय किए गए हैं। पाणिनि का सूत्र है— “स्वनहसोर्वा" (अ०३।३।६२)। अत: उभयत्र प्रायः समानता ही है।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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