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________________ ४४७ चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घादिपादः ४४७ ११९६. अवन्योराक्रोशे [४।५।२४] [सूत्रार्थ] 'आक्रोश' अर्थ के गम्यमान होने पर 'अव-नि' उपसर्ग-पूर्वक ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से 'घञ्' प्रत्यय होता है।।११९६। [दु० वृ०] अवन्योरुपपदयोराक्रोशे गम्यमाने ग्रहेर्घञ् भवति। अवग्राहस्ते वृषल ! भूयात् । निग्राहस्ते वृषल ! भूयात् । आक्रोश इति किम् ? अवग्रहः पदस्य, निग्रहश्चौरस्य।।११९६। [समीक्षा] 'अवग्राहः, निग्राहः' शब्दों की सिद्धि दोनों ही आचार्यों ने 'घञ्' प्रत्यय द्वारा की है। पाणिनि का सूत्र है- "आक्रोशेऽवन्योर्ग्रहः' (अ०३।३।४५)।अत: उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि] १-२. अवग्राहः। अव + ग्रह् + घञ् + सि। निग्राहः। नि + ग्रह + घञ् + सि। 'अव-नि' उपसर्गों के उपपद में रहने पर 'ग्रह' धातु से 'घञ्' प्रत्यय, इज्वद्भाव, धातुघटित उपधा अकार को दीर्घ तथा विभक्तिकार्य।।११९६। ११९७. प्रेलिप्सायाम् [४।५।२५] [सूत्रार्थ] 'लिप्सा' अर्थ के गम्यमान होने पर 'प्र' उपसर्ग-पूर्वक 'ग्रह' धातु से ‘घञ्' प्रत्यय होता है।।११९७। [दु० वृ०] प्र उपपदे लिप्सायां गम्यमानायां ग्रहेर्घञ् भवति। पात्रप्रग्राहेण चरति भिक्षुः। लिप्सायामिति किम् ? प्रग्रहः।।११९७। [क० च०] प्रे०। पात्रप्रग्राहेणेति। तृतीयानिर्देशे सति लिप्सा स्फुटेति कृत्वा तृतीया कृता।।११९७। [समीक्षा 'प्रग्राहः' शब्द के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'घ' प्रत्यय किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- "प्रे लिप्सायाम्' (अ०३।३।४६)। अत: उभयत्र समानता है। [रूपसिद्धि] १. प्रग्राहेण। प्र + ग्रह + घञ् + टा। 'प्र' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से 'घञ्' प्रत्यय, इज्वद्भाव, धातुघटित उपधा को दीर्घ तथा विभक्तिकार्य।।११९७।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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