________________
४४८
कातन्त्रव्याकरणम्
११९८. समि मुष्टौ [४।५।२६ [सूत्रार्थ]
'मष्टि अर्थ में मन उसमा के उपदम ने ग्रह उपादान । ८17। धात से घञ्' प्रत्यय होता है।।११२८।
[दु० टी०]
सम्पपदे मष्टावधे ग्रह भवति। ब्राहो नल्त । मष्टाविति किम् ? संग्रहः। अङ्गुलीनां रचनाविशेषो मुष्टिन्हि गृह्यते। क्र. शाकग्राहः इनि 'सर्वस्मात् परिमाणे'' (४।५।५) इति सिद्धम् ।।१२२८
[दु० टी०]
समि। मप्रक्रियात्मकत्वात् नत्र ग्रहनिनाम्नीत्याह-मष्टावर्थ इति। अन्य आह–मुष्टिविषयश्च धात्वथों भवति। मुष्टिविषवं सामर्थ्यमाख्यायने इत्यर्थः। मुष्टिशब्दो ब्रीह्यादीनां परिमाणवाच्योऽस्ति, तत्र न प्रयोजयतीन्याह- अङ्गलानामित्यादि।। १ १९८।
[वि० प०]
समि०। शाकादीनां परिमाणविशेषो मुष्टिरुच्यते। तत्र घञ् सिद्ध एवेत्याह—एक इत्यादि।।११९८।
[समीक्षा]
'संग्राह:' शब्द की सिद्धि दोनों ही आचायों ने 'घ' प्रत्यय द्वारा की है। पाणिनि का सूत्र है—“समि मष्टो' (अ०३।३।२६)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. संग्राहा मल्लस्य। सम् - ग्रह - घञ् - सि। 'सम्' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'ग्रह उपादाने' (८।१४) धान से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घञ्' प्रत्यय. इज्वद्भाव, उपधादीर्घ तथा विभन्निकार्य।। १ १९८।।
११९९. परौ यज्ञे [४।५।२७] [सूत्रार्थ
यज्ञ - विषय के विवक्षित होने तथा 'परि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर ‘ग्रह' धातु से 'घञ्' प्रत्यय होता है।।११९९।।
[दु० वृ०]
पगवुपपदे यज्ञविषये नहेर्घञ् भवति। उनरपरिग्राहः। यज्ञ इति किम् ? परिग्रहः।। १. १९९।
[समीक्षा)
'उनग्परिग्राहः' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'घञ्' प्रत्यय किया है। पाणिनि का सूत्र है-'पगै यज्ञ" ( अ०२।३।४७)। अत: उभयत्र समानता ही कही जा सकती है।