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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घञादिपादः
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[दु० वृ०] निरभ्योरुपपदयोर्यथासङ्ख्यं पूल्वोर्घञ् भवति। निष्पाव:, अभिलाव:।। ११८९। [समीक्षा]
'निष्पावः' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'घ' प्रत्यय किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “निरभ्योः पूल्वोः” (अ०३।३।२८)। अत: उभयत्र समानता ही है।। ११८९।
[रूपसिद्धि]
१-२. निष्पावः। निर् + पू + घञ् + सि। अभिलावः। अभि + लू + घञ् : सि। 'निर् + अभि' उपसर्गों के उपपद में रहने पर 'पू - लू' धातुओं से 'घ' प्रत्यय धातुघटित ऊकार की वृद्धि, औकार को 'आव्' आदेश तथा विभक्तिकार्य।।११८९।
११९०. यज्ञे समि स्तुवः [४।५।१८] [सूत्रार्थ
यज्ञ के विषय में 'सम्' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'ष्टुञ् स्तुतौ' (२।६५) धातु से 'घञ्' प्रत्यय होता है।।११९० _ [दु० वृ०]
सम्युपपदे स्तौतेर्घञ् भवति यज्ञविषये। समेत्य स्तुवन्ति यस्मिन् संस्तावो देशः। संस्तवोऽन्यः।।११९०।
[समीक्षा
यज्ञविषयक देशविशेष के अर्थ में 'संस्ताव:' शब्द के सिदध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'घञ्' प्रत्यय का विधान किया है! पाणिनि का सूत्र है- “यज्ञ समि स्तुवः'' (अ०३।३।३१)। अत: यहाँ उभयत्र पूर्ण समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. संस्तावो देश:। सम् + स्तु + घञ् , सि। समेत्य स्तुवन्ति यस्मिन् । 'सम्' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'टुञ् स्तुतौ' (२।६५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घ' प्रत्यय, इज्वद्भाव, धातुघटित उकार की वृद्धि, आव् - आदेश तथा विभक्तिकार्य।।११९०।
११९१. उन्न्योर्गिरः [४।५।१९]
[सूत्रार्थ
'उद्' एवं 'नि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'गृ निगरणे' (I .से 'घञ्' प्रत्यय होता है।। ११९१।
[दु० वृ०] उन्न्योरुपपदयोर्गिरतेर्घञ् भवति। उद्गारः, निगारः। उन्न्योरिति क्रिम् : गरः।।११९१।