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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घञ्प्रत्ययादिपादः
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[रूपसिद्धि]
१-२ संरावः । सम् + रु+ घञ् +सि । उपरावः । उप+ रु+घञ् +सि । ‘सम् -उप' उपसर्गपूर्वक ‘रु शब्दे' (२।१०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घञ् ' प्रत्यय, उकार को वृद्धि, औकार को 'आव् ' आदेश, मकार को अनुस्वार तथा विभक्तिकार्य ।।११७९ ।
११८०. समि दुवः [४।५।८] [सूत्रार्थ
‘सम् ' उपसर्ग-पूर्वक 'टु दु उपतापे' (४।१०) धातु से ‘घञ् ' प्रत्यय होता है ।।११८०।
[दु० वृ०] सम्युपपदे दुनोतर्घञ् भवति । सन्दावः । समीति किम् ? दवः ।।११८०। [समीक्षा
'संटवः, संदाव:, संयावः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'घञ् ' प्रत्यय किया है । अन्तर यह है कि पाणिनि ने केवल ‘सम् ' उपसर्ग के ही उपपद में रहने पर 'द्रु' आदि धातुओं से घञ् प्रत्यय एक ही सूत्र द्वारा किया है - “समि युद्रुदुवः' (अ०३।३।२३)। कातन्त्रकार ने 'सम् ' उपसर्ग के उपपद में रहने पर केवल 'दु' धातु से तथा 'सम्-उद् ' उपसर्गों के उपपद में रहने पर 'यु-द्र' धातुओं से 'घञ् 'प्रत्यय करने के कारण दो सूत्र बनाए हैं । अत: कातन्त्रीय निर्देश में उत्कर्ष प्रतीत होता है।
[रूपसिद्धि]
१. सन्दावः। सम् +दु+घञ् + सि । ‘सम्' उपसर्गपूर्वक 'टु दु उपतापे' (४।१०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घञ् ' प्रत्यय, 'घ् -ञ् ' अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, उकार को वृद्धि, 'आव् ' आदेश, मकार को अनुस्वार, वर्गान्त आदेश तथा विभक्तिकार्य ।।११८०।
११८१. युद्रुवोरुदि च [४।५।९] [सूत्रार्थ]
'उद्' तथा 'सम् ' उपसर्गों के उपपद में रहने पर 'यु-द्रु' धातुओं से ‘घञ् ' प्रत्यय होता है ।।११८१।
[दु० वृ०]
उधुपपदे समि च युद्रुभ्यां घञ् भवति। उद्यावः, उद्राव:। 'संयावः, संद्राव:' एवेति केचित्। उदि चेति किम्? यवः, द्रवः। अप्यधिकारात् – यावः, द्रावः। 'दावः' इति च स्यात्। तथा शारो वायुः। शार: शबल:, नीशार: प्रावरणम्। ह्रस्वस्य दीर्घता।। ११८१।