________________
चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये चतुर्थः क्वन्सुपादः ३८९ कर्मकर्तर्येवाभिधानात्। केचिद् अकर्मकर्तर्यपि। दोषान्धकारभिदुरो दृप्तारिपक्षच्छिदुर: इति।।११४२।
[समीक्षा]
यहाँ पर उक्त समीक्षा के अनुसार दोनों में समानता है, क्योंकि पाणिनीय 'कुरच्' प्रत्यय में चकारानुबन्ध से कोई अन्तर नहीं आता। पाणिनि का सूत्र है"विदिभिदिच्छिदेः कुरच् ' (अ०३।२।१६२)।
[रूपसिद्धि]
१. छिदुरः। छिद् + कुर + सि। 'छिदिर् द्विधाकरणे' (६।३) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'कुर' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।
२ - ३. भिदुरः। भिदिर् + कुर + सि। विदुरः। विद् + कुर + सि। प्रक्रिया पूर्ववत्।।११४२।
११४३. जागुरूकः [४।४।४३] [सूत्रार्थ)
ताच्छील्य आदि अर्थों में 'जागृ निद्वाक्षये' (२।३६) धातु से 'ऊक' प्रत्यय होता है ।।११४३।
[दु० वृ० जागर्तेरूको भवति तच्छीलादिषु। जागरूकः ॥११४३। [दु० टी०]
जागु०। जागतेस्तृनि प्राप्ते ऊक आरभ्यते। दीपिज्ञापकत्वाद् वासरूपन्यायेन तृन्नपि जागरिता ।।११४३।।
[क० च.]
जागु०। जागतेस्तृन्निति प्राप्ते इति टीका। तृन्प्राप्तियोग्यतायामनेकस्वरत्वाद् उजो बाध इति भावः।।११४३।
[समीक्षा
'जागरूकः' शब्दरूप के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में समान विधान प्राप्त होता है । पाणिनि का सूत्र है - "जागरूक:' (अ० ३।२।१६५)।
[रूपसिद्धि]
१. जागरूकः। जागृ + ऊक + सि । 'जागृ निद्राक्षये' (२।३६) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'ऊक' प्रत्यय, गुण तथा विभक्तिकार्य ।।११४३। ११४४. चेक्रीयितान्तानां यजिजपिदन्शिवदाम् [४।४।४४]
[सूत्रार्थ]
ताच्छील्य आदि अर्थों में चेक्रीयितप्रत्ययान्त 'यज् - जप् - दन्श् - वद् ' धातुओं से 'ऊक' प्रत्यय होता है ।।११४४।