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________________ ३८८ कातन्त्रव्याकरणम् से 'मर' प्रत्यय किया है । पाणिनि ने इसमें ‘क -च' दो अनुबन्ध तथा कातन्त्रकार ने केवल 'क्' अनुबन्ध लगाया है । पाणिनीय 'च' अनुबन्ध चित्स्वरार्थ प्रसिद्ध है, परन्तु कातन्त्र में स्वरप्रकरण का सर्वथा अभाव है । अत: प्राय: उभयत्र समानता ही है । पाणिनि का सूत्र है - "सृघस्यदः क्मरच्' (अ० ३।२।१६०)। रूपसिद्धि] १. सृमरः। सृ + मरक् + सि । 'सृ गतौ' (१।२७४;२।७४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'मरक्' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य । २ - ३. अगरः। अद् + मरक् + सि । घस्मरः। घस्ल + मरक् + सि । प्रक्रिया पूर्ववत् ।।११४०। ११४१. मिदिभासिभन्जां घुरः [४।४।४१] [सूत्रार्थ ताच्छील्य आदि अर्थों में 'मिद् - भास् - भन्ज्' धातुओं से “धुर' प्रत्यय होता है ॥११४१। [६० वृ०] एभ्यो धुरो भवति तच्छीलादिषु। मेद्यतीति मेदुरः। भासते इति भासुरः। भज्यते स्वयमेवेति कर्मकर्तयेवाभिधानात् भङ्गुरं काष्ठम् । यस्तु पर भनक्ति ततस्तृनेव भङ्क्ता ।।११४१। [समीक्षा 'भासरः' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में ३ . ३ धातुओं से 'घुर' प्रत्यय किया गया है। केवल पाणिनीय चकारानुबन्ध से यहाँ भिन्नता नहीं माननी चाहिए। पाणिनि का सूत्र है - "भञ्जभासमिदो घुरच् '' (अ० ३।२।१६१)। अत: उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि) १. मेदुरः। मिद् + घुर + सि। 'जि मिदा स्नेहने' (२।७७) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'धुर' प्रत्यय, उपधागुण तथा विभक्तिकार्य। २ - ३. भासुरः। भास् + धुर + सि। भङ्गरम्। भन्ज् + घुर + सि। प्रक्रिया प्रायः पूर्ववत्।।११४१। ११४२. छिदिभिदिविदां कुरः [४।४।४२] [सूत्रार्थ ताच्छील्य इत्यादि अर्थों में 'छिद् - भिद् - विद्' धातुओं से 'कुर' प्रत्यय होता है ।।११४२। [दु० वृ०] एभ्यः कुरो भवति तच्छीलादिषु। छिदुरः, भिदुरः। वेत्तीति विदुरः। छिदिभिद्योः
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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