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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये चतुर्थः क्वन्सुपादः
नित् स्वर के लिए है, जिस स्वरविधान का कातन्त्र में सर्वथा अभाव है। अतः उभयत्र प्रायः समानता ही है। पाणिनि का सूत्र है - " जल्पभिक्षकुट्टलुण्टवृङः षाकन्” (अ० ३।२।१५५)। [रूपसिद्धि]
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१. वराकः, वराकी। वृ षाक (ई) + सि । ‘वृङ् सम्भक्तौ' (८।५१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘षाक' प्रत्यय, गुण, तथा विभक्तिकार्य । 'ष्' अनुबन्ध नदाद्यर्थ है, अतः स्त्रीलिङ्ग में 'ई' प्रत्यय होता है।
२ ५. भिक्षाकः, भिक्षाकी । भिक्ष् + षाक (ई) + सि। लुण्टाकः,
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३८३
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लुण्ट् + षाक (ई) + सि। जल्पाकः, जल्पाकी । जल्प् + षाक (ई) + सि। प्रक्रिया पूर्ववत् ।। ११३५ । ११३६. प्रे जुसुवोरिन् [४ । ४ । ३६ ]
कुट्टाकी । कुट्ट
लुण्टाकी।
षाक (ई) + सि। कुट्टाकः,
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[ सूत्रार्थ]
ताच्छील्य आदि अर्थों में 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'जु सु' धातुओं से 'इन्' प्रत्यय होता है ।।११३६।
[दु० वृ० ]
प्र उपपदे जवतेः सवतेश्च इन् भवति तच्छीलादिषु । प्रजवी | 'षु प्रसवे' (४|१), प्रसवी ।।११३६।
[वि० प० ]
प्रे० । 'षु प्रसवे' (४।१) इति । अन्ये तु 'षु प्रेरणे' (५।१८) इत्यस्यापि ग्रहणं मन्यन्ते ||११३६।
[क० च०]
प्रे० । अन्ये त्विति पञ्जी । जुसुवोरिति निर्देशस्य 'सू प्रेरणे' (५।१८) इति दीर्घान्तस्यापि सम्भवादित्यर्थः । अथ यदि 'सू प्रेरणे' (५/१८) इत्यस्य ग्रहणं तदा आदादिकोऽस्ति तस्यापि ग्रहणं स्यादित्याह - जवतीति हेमः । एतेनादादिकस्य 'षु प्रसवे' (४।१) इत्यस्य ग्रहणमिति भावः ॥ ११३६।
[समीक्षा]
'प्रजवी, प्रसवी' इत्यादि शब्दरूपों के निष्पादनार्थ दोनों ही आचार्यों ने ११ धातुएँ दो सूत्रों में पढ़ी हैं। पाणिनि के दो सूत्र हैं- " प्रजोरिनि:, जिदृक्षिविश्रीण्वमाव्यथाभ्यमपरिभूप्रसूभ्यश्च” (अ० ३ २ १५६, १५७) । वस्तुतः 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'जु - सु' इन दो धातुओं से 'इन्' प्रत्यय होता है । इस दृष्टि से कातन्त्रकार की योजना अधिक समीचीन है, क्योंकि उन्होंने प्रकृत सूत्र में 'प्र' उपसर्गपूर्वक दो धातुओं से इन् प्रत्यय का विधान किया है तथा ९ धातुएँ अग्रिम सूत्र में पढ़ी हैं। इसके विपरीत