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________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये चतुर्थः क्वन्सुपादः (अ०३।२।१३२) । ‘शन्तृङ् ' प्रत्यय करने से 'सुन्वन्तः' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ नकारागम नहीं करना पड़ता है। अतः कातन्त्रीय प्रक्रिया में अपेक्षाकृत लाघव ही कहा जा सकता है । [विशेष वचन १. संयोगग्रहणं फलवत्कर्तृप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० प्र०) । [रूपसिद्धि] १. सुन्वन्तो यजमानाः । सु+ शन्तृङ् + जस् । ‘षुञ् अभिषवे' (४।१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘शन्तृङ् ' प्रत्यय, अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, “नः ध्वादेः' (३।२।३४) से 'नु' विकरण, उकार को वकार तथा विभक्तिकार्य ।। १११२ । १११३. अर्हः प्रशंसायाम् [४।४।१३] [सूत्रार्थ 'प्रशंसा' अर्थ के गम्यमान होने पर 'अर्ह पूजायाम् ' (१।२५०) धातु से ‘शन्तृङ्' प्रत्यय होता है ।। १११३ । [दु० वृ०] प्रशंसायां गम्यमानायां वर्तमानादर्हतेः शन्तृङ् भवति । अर्हन् भवान् विद्याम् । प्रशंसायामिति किम् ? अर्हति चौरो वधम् ।। १११३ । [दु० टी०] अर्हः। प्रशंसा स्तुतिपर्याय:। नियमार्थं प्रशंसायामेवेति।।१११३। [समीक्षा] 'अर्हन् ' शब्द के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'शन्तृङ् ' प्रत्यय तथा पाणिनि ने ‘शतृ ' प्रत्यय किया है । 'शन्तृङ् ' प्रत्यय करने पर नकारागम नहीं करना पड़ता है । अत: कातन्त्रीय प्रक्रिया में लाघव ही कहा जाएगा । पाणिनि का सूत्र है - "अर्हः प्रशंसायाम् ' (अ० ३।२।१३३) । [रूपसिद्धि] १. अर्हन् भवान् विद्याम् । अर्ह + शन्तृङ् + सि । ‘अर्ह पूजायाम् ' (१।२५०) धातु से शन्तृङ् प्रत्यय तथा विभक्ति - कार्य ।। १११३ । १११४. तच्छील- तद्धर्म-तत्साधुकारिष्वा क्वेः [४।४।१४] [सूत्रार्थ] “क्विब् भ्राजिपृधुर्वीभासाम्' (४।३।६८) सूत्र पर्यन्त तन्छील, तद्धर्म तथा तत्साधुकारी अर्थों का अधिकार रहेगा ।। १११४ ।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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