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________________ २६ कातन्त्रव्याकरणम् तृतीयः कर्मादिपादः २२६-३३७ [अण् प्रत्यय, वेदों की नित्यता तथा उनका अध्ययन के द्वारा अभिव्यक्तिविकार, कर्म का द्वैविध्य, उनकी परिभाषाएँ, गुरु-लाघवचिन्ता, पूर्वपक्षार्थ, 'ण' प्रत्यय, सुखप्रतिपत्त्यर्थवचन, परप्रसिद्धि के कारण इनङ् का पाठ, 'क' प्रत्यय, रूढिवचन, शर्ववर्मा द्वारा की गई दा-सञ्ज्ञा, मन्दमतिबोधार्थ वचन, 'टक्' प्रत्यय, उत्तर सूत्र की प्रपञ्चार्थता, 'अच्' प्रत्यय, ताच्छील्य की व्याख्या, तार्किक मत, पचादि के प्रपञ्चार्थ प्रकरण, प्रतिपत्तिगौरव, लक्ष्यानुरोध से नामाधिकार, 'ट' प्रत्यय, ‘गुरुकुलम्' आदि शब्दों की सिद्धि, ताच्छील्य-निर्देश वैचित्र्य के लिए, हेतु की व्याख्या, रूढि के कारण 'तस्कर' शब्द की सिद्धि, गरीयसी हेत्वादिविवक्षा, 'इ' प्रत्यय, कुलचन्द्र का अभिमत, 'देवापि-वातापि' शब्दों की सिद्धि रूढि के कारण, 'खि' प्रत्यय, 'खश्' प्रत्यय, प्रसज्यप्रतिषेध की व्याख्या, निपातनविधि, 'ख' प्रत्यय, प्रक्रियागौरव, 'अण्' प्रत्यय, हेत्वादि अर्थों में विवक्षा, 'नाम्नि' पद की सुखार्थता, 'उर-विह' आदेश, 'ड' प्रत्यय, निपातनविधि, सुखार्थ कर्मग्रहण, प्रपञ्चार्थ 'ड' प्रत्यय का विधान, धातुओं की अनेकार्थता, 'णिन्' प्रत्यय, 'टक्' प्रत्यय, नदाद्यर्थ-यण्वद्भावार्थ अनुबन्धयोजना, कृत् की अभिधानलक्षणता, निपातनविधि, ‘ख्युट' प्रत्यय, रूढिशब्द परिनिष्ठित अर्थ के अभिधायक, पदकार-भाष्यकार के अभिमत, कार्य की पूर्वावस्था प्रकृति, “खिष्णु-खुकञ्' प्रत्यय, सुखार्थ इकारानुबन्ध, पाठ-गौरव, ताच्छील्य की विवक्षा, विशेषणविशेष्यभाव प्रयोक्ता के अधीन, 'विण' प्रत्यय, 'तरासाह' शब्द का लौकिक प्रयोग, विणप्रत्यय, डकारादेश, 'क' प्रत्यय-घकारादेश, 'अग्रेगा:' इत्यादि शब्दों का लोक में भी प्रयोग, 'श्वेतवाः' इत्यादि शब्दों का लोक में भी प्रयोग, 'मन्-क्वनिप्-वनिप्-विच्' प्रत्यय, श्रीपति-हेम आदि के मत, 'क्विप' प्रत्यय, प्रपञ्चार्थ चतुःसूत्री, निपातनविधि, 'टक्-सक्' प्रत्यय, क्षणभङ्गुरवाद, 'णिनि' प्रत्यय, जाति की व्याख्या, पूर्वाचार्य द्वारा परिभाषित गोत्र, ब्राह्मण के तीन कारण, शाकटायन का जातिविषयक मत, षट्कर्मशालित्व ब्राह्मणत्व, ताच्छील्य स्वभावफलनिरपेक्ष प्रवृत्ति, व्यापारवान् कर्ता, प्रकृति-प्रत्यय मिलकर प्रत्ययार्थ का कथन करते हैं, आभीक्ष्ण्य का अर्थ, दो प्रकार का नियम, पुंवद्भाव, 'णिनिखश्' प्रत्यय, वैयाकरण-वेदान्तवादी-नैयासिकों के मत, अपौरुषेय वेदवाक्य, करणत्व की व्याख्या, अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत, चार प्रमाण, यागादिव्यापार, सुखार्थ कर्मग्रहण, क्विप् प्रत्यय, दो तथा चार प्रकार के
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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