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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः [रूपसिद्धि]
१. ब्रह्मदुघा गौः। ब्रह्मन् + दुह् + क + आ + सि । 'ब्रह्मन्' शब्द के उपपद में रहने पर 'दुह प्रपूरणे' (२।६१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क' प्रत्यय, हकार को घकार, स्त्रीलिङ्ग में “स्त्रियामादा'' (२।४।४९) से 'आ' प्रत्यय, समानदीर्घ, लिङ्गसंज्ञा, सि-प्रत्यय तथा उसका लोप ।
२. कामदुधा । काम + दुह् + क + आ + सि । 'काम' शब्द के उपपद में रहने पर 'दुह' धातु से 'क' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।१०६८।
१०६९. विट क्रमिगमिखनिसनिजनाम् [४।३।६४] [सूत्रार्थ]
नाम के उपपद में रहने पर ‘क्रम् - गम् - खन् - सन् - जन्' धातुओं से 'विट्' प्रत्यय होता है ।।१०६९।
[दु० वृ०] नाम्न्युपपदे एभ्यो विड् भवति ।
अग्रेया उदधिक्राश्च गोषाश्च विषखास्तथा।
श्रियं दधतु राजेन्द्र ! तवाब्जासहिता इमे।। छन्दसि सज्ञात्वेन विश्रुता लोके प्रयुज्यन्ते इति मतम् ।।१०६९। [वि० प०] विट० । “विड्वनोरा' (४।१।७०) इति सर्वत्राकारः ।।१०६९। [क० च०] विट०। नामोपपदमात्रं पूर्वोक्तादेव हेतोः ।।१०६९। [समीक्षा]
'अग्रेगा:, गोषा:' इत्यादि शब्दों के सिद्धयर्थ दोनों ही आचार्यों ने 'विट्' प्रत्यय का विधान किया है । 'गम्' आदि पाँचों धातुओं से सिद्ध होने वाले शब्दरूप वेद में तो प्रयुक्त हैं ही, इनका लोक में भी प्रयोग होता है। इसीलिए कातन्त्रकार ने यहाँ इनके साधुत्वहेतु सूत्र बनाया है । पाणिनि का सूत्र है - "जनसनखनक्रमगमो विट्" (अ० ३।२।६७) । अत: उभयत्र समानता ही है ।।
[रूपसिद्धि]
१. अग्रेगाः ब्रह्मा। अग्रे + गम् + विट् + सि । 'अग्रे' शब्द के उपपद में रहने पर 'गम्ल गतौ' (१।२७९) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'विट्' प्रत्यय, “विड्वनोरा" (४।१।७०) से मकार को आकार, समानलक्षण दीर्घ, लिङ्गसंज्ञा, सि-प्रत्यय तथा विसर्गादेश ।
२. उदधिक्राः विष्णुः । उदधि + क्रम् + विट् + सि । 'उदधि' शब्द के उपपद में रहने पर ‘क्रमु पादविक्षेपे' (१।१५७) धातु से 'विट्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।