________________
चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः
२८९
[क० च०] वहः। प्रष्ठवाड् युगपार्श्वगः ।।१०६६। [समीक्षा]
'प्रष्ठवाट, प्रष्ठौहः' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने समान प्रत्यय (विण्-ण्वि) किए हैं । पाणिनि का सूत्र है – “वहश्च' (अ०३।२।६४) । अत: उभयत्र समानता ही कही जाएगी ।
[रूपसिद्धि]
१. प्रष्ठवाट् । प्रष्ठ + वह् + विण् + सि । प्रष्ठं वहति । 'प्रष्ठ' शब्द के उपपद में रहने पर वह प्रापणे' (१।६१०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘विण्' प्रत्यय, “अस्योपधाया दीर्घो०' (३।६।५) से धातु की उपधा अकार को दीर्घ, “हो ढ:" (३।६।५६) से हकार को ढकार, “पदान्ते धुटां प्रथम:' (३।८।१) से ढकार को टकार तथा विभक्तिकार्य ।
२. प्रष्ठौहः। प्रष्ठ + वह् + विण् + शस् । प्रष्ठं वहन्ति तान् । 'प्रष्ठ' शब्द के उपपद में रहने पर 'वह' धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘विण्' प्रत्यय, उपधादीर्घ, विण्लोप, “वाहेर्वाशब्दस्यौः' (२।२।४८) से 'वा' को औ, अकार को औकार-औकारलोप तथा विभक्तिकार्य ।।१०६६।
१०६७. अनसि डश्च [४।३।६२] [सूत्रार्थ]
'अनस्' शब्द के उपपद में रहने पर 'वह प्रापणे' (१।६१०) धातु से ‘विण्' प्रत्यय तथा ‘अनस्' शब्द के अन्तिम सकार को डकारादेश भी होता है ।।१०६७।
[दु० वृ०]
अनस्युपपदे वहेर्विण दृष्टः, अनसश्च डो भवति । अनो वहतीति अनड्वान् । अनडुहीति रूढित्वात् ।।१०६७।
[वि० प०]
अन० । अनड्वानिति । “सौ नुः' (२।२।४३) इति नुरागमः, अनडुहीति । "अनडुहश्च' (२।२।४२) इति वाशब्दस्योत्त्वम् । रूढित्वादिति । अस्यापिशब्दस्य लोकप्रसिद्धत्वादिदं वचनमित्यर्थः ॥१०६७/
[क० च०]
अनसि० । सज्ञात्वाड्डकारः आदेशः । एवं "अनडुहश्च'' (२।२।४२) इति ज्ञापकात् । तथा अकार उच्चारणार्थः ।।१०६७/