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________________ २८८ कातन्त्रव्याकरणम् १०६५. सहश्छन्दसि [४।३।६०] [सूत्रार्थ नाम के उपपद में रहने पर ‘षह मर्षणे' (१।५६०) धातु से वैदिक सञ्ज्ञा के विषय में 'विण्' प्रत्यय होता है ।।१०६५। [दु० वृ०] नाम्न्युपपदे सहश्छन्दसि सज्ञायां विण दृष्टः। स च लोके प्रयुज्यते इति वचनम्। तुराषाट्। 'तुरासाहं पुरोधाय' इति।।१०६५। [वि० प०] सह०। तुरः सहते इति। "ह्रस्वस्य दीर्घता'' (२।५।२८) इत्युपपदस्य दीर्घत्वम्, तत्रापिग्रहणात् षत्वम्।।१०६५। [क० च०] सह। नन्वनेन छन्द:शब्दस्योपेक्षणात् कथमिदं सूत्रं कृतमित्याह-स चेति । विरामविषये व्यञ्जने परे तत्रापिशब्दबलात् सस्य षत्वं स्वरपरे हकारे तुरासाहमिति न षत्वं संज्ञाबलादेव नामोपपदं विशेषणविशेष्यभावस्य प्रयोक्तुरायत्तत्वाद् वा एवं वक्ष्यमाणेऽपि ||१०६५। [समीक्षा] 'तुराषाट्' इत्यादि शब्दों के सिद्धयर्थ दोनों ही व्याकरणों में समान प्रत्यय ‘विण -ण्वि' किए गए हैं । पाणिनि का सूत्र है - "छन्दसि सहः' (अ० ३।२।६३)। पाणिनि के अनुसार 'तुराषाट' का प्रयोग केवल वेद में ही माना जाएगा, परन्तु कातन्त्र व्याकरण केवल लौकिक संस्कृत से ही सम्बद्ध है, अत: उसमें इसका उल्लेख लौकिक संस्कृत में भी ‘तुराषाट' शब्द को साधु सिद्ध करता है । कुमारसम्भव में कालिदास ने 'तुरासाहम्' का प्रयोग किया है - "तुरासाहं पुरोधाय' । [रूपसिद्धि] १. तुराषाट्। तुरा + सह + विण + सि । तुरः सहते । ‘तुरा' शब्द के उपपद में रहने पर वह मर्षेणे' (१।५६०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'विण्' प्रत्यय, "ह्रस्वस्य दीर्घता'' (२।५।२८) से दीर्घ, विण का लोप, सकार को षकार तथा विभक्तिकार्य ।।१०६५। १०६६. वहश्च [४।३।६१] [सूत्रार्थ] नाम के उपपद में रहने पर सज्ञा अर्थ में 'वह प्रापणे' (१।६१०) धातु से वेद में 'विण्' प्रत्यय होता है ।।१०६६। [दु० वृ०] नाम्न्युपपदे वहेश्छन्दसि सज्ञायां विण दृष्टः । प्रष्ठवाट , प्रष्ठौहः । वाहेर्वाशब्दस्यौरिति । इदमपि पूर्ववत् ।।१०६६ [वि० प०] वहः। इदमपीति। अस्यापि लोके प्रयुक्तत्वादित्यर्थः।।१०६६। १. तस्मिन् विप्रकृता: काले ताडकेन दिवौकसः। तुरासाहं पुरोधाय धाम स्वायम्भुवं ययुः।।(कु० सं० )।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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