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________________ २५८ [दु० वृ० ] एषु कर्मसूपपदेषु भृञः खिर्भवति । आत्मानमेव बिभर्तीति आत्मम्भरिः । एवम् उदरम्भरिः, कुक्षिम्भरिः || १०३४ | [दु० टी०] आत्मो० । अवतक्ष्यादिवत् प्रयोगसामर्थ्यादवधारणार्थो गम्यते इति विग्रहेऽवधारणं दर्शितम्, एवं शेषयोरपि ।। १०३४ | [वि० प० ] आत्मो० [ । आत्मम्भरिरिति । "व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः” (२।५।४) इत्यतिदेशबलात् नलोपे “ह्रस्वारुषोर्मोऽन्तः" (४।१।२२ ) इति मकारागमः । एवं शेषयोरपीति ।। १०३४ । कातन्त्रव्याकरणम् [क० च०] आ० । आत्मानं विभर्तीत्युक्ते सर्वे एव आत्मम्भरिशब्दवाच्या भवितुमर्हन्ति, न हि कोऽपि आत्मनो भरणं न करोतीति ? सत्यम् । आत्मशब्दो नियमवचनपर इत्याह आत्मानमेवेति ।। १०३४। [समीक्षा] 'आत्मम्भरिः, कुक्षिम्भरिः, उदरम्भरिः' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों व्याकरणों में आवश्यक विधान किया गया है । कातन्त्रकार ने सूत्र द्वारा 'खि' प्रत्यय तथा मुमागम किया है, जब कि पाणिनि निपातन से 'इन्' प्रत्यय तथा मुमागम करते हैं, उनका सूत्र है “फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च’” (अ० ३।२।२६) | यह भी ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने केवल ‘आत्मम्भरिः’ शब्द का पाठ किया है, 'कुक्षिम्भरिः, उदरम्भरिः' शब्दों की पूर्ति वृत्तिकार द्वारा की गई है "अनुक्तसमुच्चयार्थश्चकारः कुक्षिम्भरिः, उदरम्भरिः "। जबकि कातन्त्रकार ने तीनों ही शब्दों का पाठ सूत्र में कर दिया है । इस प्रकार कातन्त्रकार का वैशिष्ट्य सिद्ध होता है । - - [विशेष वचन ] आत्मानमेवेति ।। १. आत्मशब्दो नियमवचनपर इत्याह [रूपसिद्धि] १. आत्मम्भरिः। आत्मन् + भृञ् + खि + सि । आत्मानमेव बिभर्ति | 'आत्मन्' शब्द के उपपद में रहने पर 'डु भृञ् धारणपोषणयो:' ( २।८५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘खि’ प्रत्यय, “ह्रस्वारुषोर्मोऽन्तः” (४।१।२२) से मकारागम, गुणादेश तथा विभक्तिकार्य। २. उदरम्भरिः । उदर + भृञ् + खि + सि । उदरमेव बिभर्ति । 'उदर' शब्द के उपपद में रहने पर 'भृ' धातु से 'खि' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् । ३. कुक्षिम्भरिः । कुक्षि + भृञ् + खिसि । कुक्षिमेव बिभर्ति । कुक्षि' शब्द के उपपद में रहने पर 'भृ' धातु से 'खि' प्रत्यय आदि पूर्ववत् ॥ १०३४।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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