SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः २५७ [समीक्षा पाणिनि ने केवल ‘फलेग्रहिः' शब्द को इन्प्रत्ययान्त निपतन से सिद्ध किया है । उनका सूत्र है – “फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च'' (अ० ३।२।२६) । परन्तु कातन्त्रकार ने ‘ग्रह्' धातु से इ-प्रत्यय करके तीन शब्द सिद्ध किए हैं । इस प्रकार व्यापकता की दृष्टि से कातन्त्र का उत्कर्ष सिद्ध होता है। [रूपसिद्धि] १. फलेग्रहिः। फल + ग्रह् + इ + सि । फलानि गृह्णाति । 'फल' शब्द के उपपद में रहने पर ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'इ' प्रत्यय, निपातन से 'फल' शब्द में एकार तथा विभक्तिकार्य ।। २. मलग्रहिः। मल + ग्रह + इ + सि । मलं गृह्णाति । 'मल' शब्द के उपपद में रहने पर ‘ग्रह' धातु से 'इ' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।। ३. रजोग्रहिः। रजस् + ग्रह + इ + सि । रजो गृह्णाति । ‘रजस्' शब्द के उपपद में रहने पर ‘ग्रह' धातु से 'इ' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।१०३२। १०३३. देववातयोरापेः [४।३। २८] [सूत्रार्थी 'देव-वात' कर्म के उपपद में रहने पर 'आप्ल व्याप्तौ' (४।१४) धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ।।१०३३। [दु० वृ०] देववातयोः कर्मणोरुपपदयोराप्नोतेरिर्भवति । देवानाप्नोतीति देवापिः । वातानाप्नोतीति वातापिः । विशिष्ट एव रूढित्वात् ।।१०३३। [समीक्षा] 'देवापिः, वातापि:' शब्दों के सिद्ध्यर्थ पाणिनीय निर्देश प्राप्त नहीं है । अत: इन शब्दों की सिद्धि के लिए सूत्र बनाने पर कातन्त्र की यह विशेषता ही कही जाएगी । [रूपसिद्धि] १. देवापिः। देव + आप् + इ + सि । देवानाप्नोति । एक दानव का नाम । 'देव' शब्द के उपपद में रहने पर 'आप्ल व्याप्तौ' (४।१४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'इ' प्रत्यय, समानलक्षण दीर्घ तथा विभक्तिकार्य । २. वातापिः। वात + आप् + इ + सि । वातानाप्नोति । एक दानव का नाम। 'वात' शब्द के उपपद में रहने पर 'आप्ल' धातु से 'इ' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत्।।१०३३। १०३४. आत्मोदरकुक्षिषु भृञः खिः [४।३।२९] [सूत्रार्थ कर्म कारक में 'आत्मन् -उदर-कुक्षि' शब्दों के उपपद में रहने पर 'भृञ्' धातु से 'खि' प्रत्यय होता है ।।१०३४।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy