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कातन्त्रव्याकरणम्
ककारोऽगुणार्थस्तेन सम्प्रसारणम् - गृहा: स्त्रिय इति ।।९९९।
[वि० प०]
गेहे० । गृह्णातीति । पुरुषेणोपार्जितं धनमित्यर्थः । गृहं वेश्म । यदा तत्रस्था दाराश्च गृहशब्देनोच्यन्ते, तदाप्यक्प्रत्यय इत्याह – गृहा इति ।।९९९।
[समीक्षा]
'गृहम्, गृहाः' आदि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ कातन्त्रकार ने 'अक्' तथा पाणिनि ने 'क' प्रत्यय किया है, जो वर्णसंख्या तथा वर्ण की दृष्टि से समान ही है । पाणिनि का सूत्र है – “गेहे कः' (अ० ३।१।१४४) । इस प्रकार उभयत्र समानता ही है ।
[रूपसिद्धि]
१. गृहम्। ग्रह् + अक् + सि । गृह्णाति पुरुषेणोपार्जितं धनम् । ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘अक्' प्रत्यय, "ग्रहिज्यावयिव्याधिवष्टिव्यचिपच्छिवश्चिभ्रस्जीनामगुणे' (३।४।२) से सम्प्रसारण तथा विभक्तिकार्य ।
२. गृहाः। ग्रह + अक् + जस् । 'ग्रह्' धातु से ‘अक्' प्रत्यय, सम्प्रसारण तथा विभक्तिकार्य ।।९९९।
१०००. शिल्पिनि वुष् [४।२।६१] [सूत्रार्थ
शिल्पी अर्थ के विवक्षित होने पर 'नृत् - खन् – रज्ज्' धातुओं से 'वुष्' प्रत्यय होता है ॥१०००।
[दु० वृ०]
शिल्पिन्यभिधेये वष प्रत्ययो भवति । अभिधानान्नतिखनिरञ्जिभ्य एव। नर्तकः, नर्तकी। खनकः, खनकी। रजकः, रजकी। शिल्पं विज्ञानकौशलम्। इनन्तश्च निकृष्टेऽभिधानात्।।१०००।
[क० च०]
शिल्पि०। इनन्तश्चेति। इनन्त: शिल्पिशब्दो निकृष्टे वर्तते इत्यर्थः। कुत इत्याहअभिधानादिति। षकारो नदाद्यर्थः।।१०००।
।।इत्याचार्यसुषेणविद्याभूषणकृते कलापचन्द्रे चतुर्थे कृदध्याये द्वितीयो धातुपादः
समाप्तः।।
[समीक्षा]
'नर्तकः, नर्तकी, रजकः, रजकी' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'वु' प्रत्यय किया गया है, जिसके स्थान में 'अक' आदेश होकर उक्त रूप सिद्ध होते हैं। पाणिनि ने 'वु' प्रत्यय के साथ षकार-नकार अनुबन्ध जोड़े हैं तथा कातन्त्रकार ने केवल षकार। पाणिनि का सूत्र है— “शिल्पिनि वुन्' (अ० ३।१।१४५)। इस प्रकार उभयत्र प्राय: साम्य ही है।