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कातन्त्रव्याकरणम्
जिससे अप्राप्त विधियों की प्राप्ति,प्राप्त का निवारण तथा अधिक विशेष अभीष्ट अर्थ का निर्धारण संभव होता है
अप्राप्तेः प्रापणं चापि प्राप्तेर्वारणमेव च ।
अधिकार्थविवक्षा च त्रयमेतन्निपातनात् ।। यहाँ पर भी निपातन से 'अवद्य' शब्द की सिद्धि ‘गी' अर्थ में, ‘पण्य' शब्द की विक्रेय अर्थ में तथा 'वर्या' शब्द की 'अनिरोध' अर्थ में अभीष्ट है । इसीलिए यहाँ इस विधि का औचित्य सिद्ध होता है ।
पाणिनि का एतदर्थ सूत्र है- "अवधपण्यवर्या गर्दापणितव्यानिरोधष'' (अ.३।१।१०१) । अत: उभयत्र समानता है ।
[विशेष वचन] १.वङः सम्भक्तार्थतया मैत्रीकरणार्थ इत्यविरोधविषयो भवति । शतेन वर्या ___ स्त्री सम्भक्तव्या मैत्रीकर्तव्या इत्यर्थः (दु० टी०)। २. सहस्रेण वर्या सम्भक्तव्या मैत्रीकर्तव्या इत्यर्थः (वि०प०) । ३.मतमिति मतान्तरमेतत् । सूत्रकारस्य तु मते भवतव्यमेव निपातनम् -
वर्या ऋत्विज इति (वि०प०) । ४.असन्दिग्धं हि सूत्रं प्रशस्यते पण्डितै:(वि०प०)। [रूपसिद्धि]
१.पण्यं विक्रेयद्रव्यम् । पण +य+सि । ‘पण व्यवहारे स्तुतो च' (१।४०१) धातु से विक्रेय अर्थ विवक्षित होने पर प्रकृत सूत्र द्वारा निपातन से 'य' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।
२.वर्या स्त्री । वृ+य+सि । 'वृङ् सम्भक्तो' (८।५१) धातु से अनिरोध अर्थ में प्रकृत सूत्र द्वारा 'य' प्रत्यय, गुण, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय,समानलक्षण दीर्घ तथा विभक्तिकार्य ।
३. अवद्यम्। नञ् +वद्+य+सि । वद व्यक्तायां वाचि' (१।६१५) धातु से गर्दा अर्थ के विवक्षित होने पर प्रकृत सूत्र द्वारा 'य' प्रत्यय, नञ् समास तथा विभक्तिकार्य ।।९५४।
९५५ वा करणे [४।२।१६] [सूत्रार्थ] करण अर्थ की विवक्षा में 'वह्य' शब्द की सिद्धि निपातनविधि से होती है ।।९५५। [दु०वृ०] वह्यमिति निपात्यते करणेऽर्थे । वह्यं शकटम् । वाह्यमन्यत् ।।९५५। [दु० टी०] वह्यम्०। उह्यतेऽनेनेति वह्यम् ।।९५५।