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________________ चतुर्थे वृतात्ययाध्याये द्वितीयो धातुपादः १७५ [क०च०] वहाम्।। करणे उपपदे इति नाशझ्यते, निरुपपदप्रस्तावात्। एवमुत्तरत्रापि ।।९५५। [समीक्षा 'वहत्यनेन' या 'उह्यतेऽनेन ' इस करण अर्थ की विवक्षा में 'वह्यम् ' शब्दरूप के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में निपातनविधि से 'य' (यत् ) प्रत्यय किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- "वह्यं करणम् "(अ०३।१।१०२) । अत: उभयत्र समानता ही है। [विशेष वचन] १. करणे उपपदे' इति नाशक्यते, निरुपपदप्रस्तावात् (क०च०) । [रूपसिद्धि] १.वह्यं शकटम् । 'वह प्रापणे' (१।६१०) धातु से करण अर्थ की विवक्षा में प्रकृत सूत्र द्वारा निपातन से 'य' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।।९५५। ९५६.अर्यः स्वामिवैश्ययोः [४।२।१७] [सूत्रार्थ] 'स्वामी' तथा 'वैश्य' अर्थ के विवक्षित होने पर 'अर्य:' शब्दरूप निपातनविधि से सिद्ध होता है ।।९५६। [दु०वृ०] 'अर्यः' इति निपात्यते स्वामिनि वैश्ये चार्थे । अर्य: स्वामी, अयों वैश्यः। आर्योऽन्यः।।९५६। [दु०टी०] अर्यः। 'ऋ गतौ' (२।७४) । घ्यणि प्राप्ते वैश्यो वर्णविशेषः।।९५६ [समीक्षा] स्वामी तथा वैश्य अर्थ में 'अर्यः' शब्द के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में निपातनविधि अपनाई गई है । पाणिनि का सूत्र है- "अर्य: स्वामिवैश्ययोः" (अ०३।१।१०३) । अत: उभयत्र समानता ही है । [रूपसिद्धि] १. अर्यः। ऋ+य+सि। 'ऋ गतौ' (२७४) धातु से स्वामी-वैश्य अर्थों की विवक्षा में प्रकृत सूत्र द्वारा निपातन से 'य' प्रत्यय,गुणादेश तथा विभक्तिकार्य ।।९५६। ९५७. उपसर्या काल्या प्रजने [४।२।१८] [सूत्रार्थ] गर्भग्रहण के समय को प्राप्त कर लेने वाली धेनु-वडवा आदि के अर्थ में 'उपसर्या' शब्द निपातन से सिद्ध होता है ।।९५७।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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