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________________ १७२ कातन्त्रव्याकरणम् ९५३. चरेराङि चागुरौ [४।२।१४] [सूत्रार्थ] उपसर्गरहित 'चर गत्यर्थः' (१।१८९) धातु से 'य' प्रत्यय होता है। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक भी 'चर' धातु से 'य' प्रत्यय होगा-गुरु अर्थ को छोड़कर।।९५३। [दु०वृ०] अनुपसर्गे चरेयो भवति आङि चागुरावर्थे । चर्यम् ,आचर्यो देशः। आमति किम् ? अभिचार्यम् । अगुराविति किम् ? आचार्यों गुरुः।।९५३। [दु०टी०] चरे। चकारेण वाक्यद्वयावगतिः । ननु सत्यपि चकारे कथमेकवाक्यं न स्यात् चरेरनुपसर्गे आङि अगुरावर्थेऽनुपसर्गे इति वचनादाङ्पूर्वस्य न प्राप्नोतीति? सत्यम् ,आङि च चरेरगुरावित्यकरणात् न च केवलस्य चरेर्गुरुत्वमभिधेयं स्यात् ।।९५३। [वि०प०] चरेः । इह वाक्यद्वयं चकाराद् विज्ञेयम् । अथानुपसर्ग इति वचनाद् आपूर्वस्य न प्राप्नोतीति । अनुपसर्गे आङि चरेरगुरावर्थे इत्येकमेव वाक्यं कथन स्यात्? तदयुक्तम् , एवं सति “आङि च चरेरगुरौं' इति कुर्यात् । न चैवं कृतम् , अतश्चरेरित्येकं सूत्रम् ,आङि चागुराविति द्वितीयम् । न च केवलस्य चरेर्गुरुरभिधेयोऽस्तीति, येनागुरावित्येकवाक्ये विशेषणं स्यात् ।।९५३। [समीक्षा] 'चर्यम् ' शब्दरूप सिद्ध करने के लिए दोनों व्याकरणों में 'य' (यत् ) प्रत्यय । का विधान किया गया है । कातन्त्रकार ने एतदर्थ स्वतन्त्र सूत्र बनाया है, जबकि पाणिनि ने 'गद-मद-यम' धातुओं के साथ ही इसका पाठ किया है । उनका सूत्र है"गदमदचरयमश्चानुपसर्गे' (अ०३।१।१००) । परन्तु 'आङ्' उपसर्गपूर्वक ‘चर्' धातु से यत् प्रत्यय के विधानार्थ वार्तिककार को वार्तिक सूत्र बनाना पड़ता है- “चरेराङि चागुरौ' (का०वृ० ३।१।१००-वा०)। इस प्रकार कातन्त्रीय विधान प्रशस्त कहा जाएगा । [रूपसिद्धि] १.चर्यम्। चर्+य सि । 'चर गत्यर्थः' (१।१८९) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'य' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य ।।९५३ ।। ९५४. पण्यावधवर्या विक्रेयगानिरोधेषु [४।२।१५] [सूत्रार्थ] 'विक्रेय' अर्थ में 'पण्य' शब्द, गी' अर्थ में 'अवद्य' शब्द तथा 'अनिरोध' अर्थ में 'वर्या' शब्द निपातन से सिद्ध होता है ॥९५४ ।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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