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________________ चतुर्थे कृतात्ययाध्याये प्रथमः सिद्धिपादः १२३ ६. घ्वावा। घुण + क्वनिप् + सि। 'घुण घूर्ण भ्रमणे' (११३९९) धातु से "अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते'' (४।३।६७) सूत्र द्वारा 'क्वनिप्' प्रत्यय, णकार को आकार, उकार को वकार तथा विभक्तिकार्य।।९२५। ९२६. धुटि खनिसनिजनाम् [४।१।१] [सूत्रार्थ] धुडादि प्रत्यय के परे रहते ‘खन् - सन् -जन्' धातुवर्ती पञ्चम वर्ण नकार के स्थान में आकारादेश होता है।।९२६। [दु० वृ०] एषां धुडादौ प्रत्यये परे पञ्चमस्याकारो भवति। खात:, खाति:। सात:, साति:। जातः, जाति:। सनि च-सिषासति।।९२६। [दु० टी०] धूटि०। सनि चेति। तत्र षण दान एव सम्भवति "इवन्तर्द्ध" (३।७।३३) इत्यादिना सनि वेट्त्वात् । खनिजनोरिडस्ति। चिखनिषति, जिजनिषति। ये तत्रागुणं स्मरन्ति, तेषां चेक्रीयितलुकि-चंखन्ति, जंजन्ति। सनि चेति वक्तव्यं स्यात्। वृत्तिकारस्याभिप्रायेण भाषायामप्यविशेषेण प्रयोगोऽस्ति न भाष्यकारस्य।।९२६। [वि० प०] धुटि०। सनि चेति। इह कृद्ग्रहणादन्यत्र सामान्यमवगम्यते इत्युक्तत्वादित्यर्थः। "इवन्तर्द्ध०" (३।७।३३) इत्यादिना पक्षे अनिट। इह न भवति। सिषनिषतीति धुडादित्वाभावात्।।९२६। [समीक्षा] 'जातः, जाति:, सातवान्, खातवान्, सिषासति' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ धातुघटित नकार को आकारादेश दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “जनसनखनां सञ्झलोः” (अ०६।४।४२)। यह ज्ञातव्य है कि पाणिनीय झल् प्रत्याहार के लिए कातन्त्र में 'धुट' संज्ञा का व्यवहार किया गया है। अत: सूत्रों में तदनुसार उन शब्दों का प्रयोग द्रष्टव्य है। इस प्रकार उभयत्र समानता ही है। [विशेष वचन] १. वृत्तिकारस्याभिप्रायेण भाषायामप्यविशेषेण प्रयोगोऽस्ति न भाष्यकारस्य (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. खातः। खन् + क्त + सि। ‘खनु अवदारणे' (१।५८४) धातु से 'क्त' प्रत्यय, तकार अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, प्रकृत सूत्र से नकार को आकार, समान दीर्घआकारलोप तथा विभक्तिकार्य।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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