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________________ ११७ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये प्रथमः सिद्धिपादः [समीक्षा] भाव-करण अर्थ में 'रन्ज्' धातु से 'रागः' शब्द के सिद्धयर्थ नलोप का विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “घत्रि च भावकरणयोः" (अ०६।४।२७)। अत: प्राय: उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि १. रागः। रन्ज् + घञ् + सि। रञ्जनम्, रज्यतेऽनेन। 'रन्ज रागे' (१।६०५) धात् से घञ् प्रत्यय, इज्वद्भाव, नलोप “अस्योपधाया दीर्घा वृद्धि मिनामिनिचट्स्' (३।६।५) से उपधादीर्घ, “चजो: कगौ०” (४।६।५६) से जकार को गकार, लिङ्गसंज्ञा, प्रथमा-एकवचन 'सि' प्रत्यय तथा “रसकारयोर्विसृष्टः' (३।८।२) से सकार को विसर्ग आदेश।।९२१। ९२२. वुष्-घिणिनोश्च [४।१।६७] [सूत्रार्थ 'वुष्' तथा 'घिणिन्' प्रत्यय के परे रहते ‘रज्' धातुगत पञ्चम वर्ण नकार का लोप होता है।।९२२। [दू० वृ०] रन्जेर्तुषि घिणिनि च पञ्चमो लोप्यो भवति। "शिल्पिनि वुष' (४।२।६१) रजकः, रजकी। "युजभज०" (४।४।२२) इत्यादिना घिणिन् – रागी। चकारोऽनुतसमुच्चयार्थः। तेन युटि च रजनम्, रजनी ।।९२२। [दु० टी०] वुष्०। रजनम्, रजनीति। यदा रजनमित्युणादयो व्युत्पत्रा एव गृह्यन्ते, तदा त्वयमुक्तसमुच्चये चकारः।।९२२। [समीक्षा __'रजकः, रागी' इत्यादि प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में नलोप की व्यवस्था की गई है। अन्तर यह है कि पाणिनि ने एतदर्थ सूत्र नहीं बनाया है, परन्तु काशिकावृत्तिकार ने तदर्थ दो वार्त्तिक वचन पढ़े हैं- "घिनुणि च रञ्जेरुपसंख्यानं कर्तव्यम्, रजकरजनरज:सूपसंख्यानं कर्तव्यम्' (का० वृ०६।४।२४-वा०)। जबकि कातन्त्र में इसका साक्षात् सूत्र द्वारा विधान है। अत: कातन्त्रीय प्रक्रिया में सरलता सन्निहित है। [विशेष वचन] १. चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः (दु० वृ०)। २. उणादयो व्युत्पन्ना एव गृह्यन्ते (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. रजकः, रजकी। रन्ज् + वुष् - अक + सि। 'रन्ज रागे' (१।६०५) धातु से “शिल्पिनि वुष्'' (४।२।६१) सूत्र द्वारा 'वुष्' प्रत्यय, 'ष' 'अनुबन्ध का प्रयोगाभाव,
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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