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________________ चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये प्रथमः सिद्धिपादः ९३ [समीक्षा] 'शीनं घृतम्, शीतो वायुः' शब्दरूपों के साधनार्थ दोनों ही व्याकरणों में 'श्यैङ्' धातु को सम्प्रसारण किया गया है। पाणिनि का सूत्र है-“द्रवमूर्तिस्पर्शयोः श्यः” (अ०६।१।२४)। अत: उभयत्र समानता है। [विशेष वचन १. त्वगिन्द्रियग्राह्यो गुणविशेष: स्पर्शः इति (दु० वृ०)। २. द्रवघनम्। आदौ द्रवं पश्चाद् घनमित्यर्थः, द्रवावस्थायां काठिन्यं गतमित्यर्थः (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. शीनं घृतम्। श्यैङ् + क्त-न+सि। ‘श्यैङ् गतौ' (१।४५९) धातु से 'क्त' प्रत्यय, ऐकार को आकार, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, “तद् दीर्घमन्त्यम्" (४।११५२) से इकार को दीर्घ, "श्योऽस्पर्श" (४।६।१०७) से तकार को नकार तथा विभक्तिकार्य। २. शीनवद् घृतम्। श्यैङ् + क्तवन्तु-न+सि। ‘श्यैङ्' धातु से 'क्तवन्तु' प्रत्यय, ऐकार को आकार, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, दीर्घ, तकार को नकार तथा विभक्तिकार्य। ३. शीतो वायुः। श्यैङ् + क्त + सि। 'श्यैङ्' धातु से 'क्त' प्रत्यय आदि कार्य प्राय: पूर्ववत्।।९०१। ९०२. प्रतेश्च [४।१।४७] [सूत्रार्थ] निष्ठासंज्ञक प्रत्यय के परे रहते 'प्रति' उपसर्गपूर्वक ‘श्यैङ्' धातु को सम्प्रसारण होता है।।९०२। [दु० वृ०] प्रतिपूर्वस्य श्यायतेर्निष्ठायां सम्प्रसारणं भवति। प्रतिशीनः, प्रतिशीनवान्। प्रतिपूर्वोऽयं रोग एव वर्तते।।९०२। [दु० टी०] प्रतेः। प्रतेरिति पञ्चमीयं न षष्ठी, तेन प्रतिसंश्यान:, प्रतिसंश्यानवान् इति। संश्यानवानित्यत्र न भवति। प्रतिपूर्व इत्यादि। अद्रवघनस्पर्शार्थोऽयमारम्भ इति भावः।।९०२। [वि० प०] प्रतेः। इहापि प्रतेरिति पञ्चम्या समा व्यवहिते न भवति। प्रतिसंश्यान इति। प्रतीत्यादि। तेन पूर्वेण न सिध्यतीति।।९०२।
SR No.023091
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2005
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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