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कातन्त्रव्याकरणम्
५४८. ग्रहिस्वपिप्रच्छां सनि [३।४।८] [सूत्रार्थ]
'ग्रह-स्वप्–प्रच्छ्' धातुओं में वर्तमान अन्तस्थासंज्ञक वर्णों को सम्प्रसारण होता है, सन् प्रत्यय के परे रहने पर ।।५४८ ।
[दु० वृ०] एषां सनि परे सम्प्रसारणं भवति। जिघृक्षति, सुषुप्सति, पिपृच्छिषति ।।५४८ । [वि० प०]
गृहि० । जिघृक्षतीति। हो ढः, "तृतीयादेर्घढधभान्तस्य" (३।६ । १००) इत्यादिना आदिचतुर्थत्वं धकारः, तत: “षढो: क: से" (३।८।४), निमित्तात् षत्वम्। पिपृच्छिषतीति। "स्मियू' (३७ ११) इत्यादिना इट् ।।५४८ ।
[समीक्षा
'जिघृक्षति, सुषुप्सति, पिपृच्छिषति' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ सम्प्रसारण का विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि ने उक्त तीन धातुओं को दो सूत्रों में पढ़ा है। गुणाभाव के लिए किद्-विधायक सूत्र में इन तीनों का एक ही सूत्र में पाठ है- “रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ: संश्च'' (अ० १।२।८); "वचिस्वपियजादीनां किति च, ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च' (अ० ६।१। १५-१६)।
[रूपसिद्धि]
१. जिघृक्षति। ग्रह + सन् + ति। ग्रहीतुमिच्छति। ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से "धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात्' (३। २। ४) से 'सन्' प्रत्यय, “ग्रहगुहो: सनि' (३।७। ३१) से इडागम का निषेध, “सनि चानिटि'' (३। ५ । ९) से गुणाभाव, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, द्विवचन, अभ्याससंज्ञादि, “ऋवर्णस्याकार:' (३। ३ । १६) से ऋकार को अकार, “कवर्गस्य चवर्ग:' (३। ३। १३) से गकार को जकार, "सन्यवर्णस्य' (३। ३ । २६) से अ को इत्त्व, “हो ढः' (३। ६ । ५६) से हकार को ढकार, “तृतीयादेर्घढधभान्तस्य धातोरादिचतुर्थत्वं सध्वोः' (३।६।१००) से गकार को घकार, “षढो: क: से' (३। ८। ४) से ढकार को ककार, धातुसंज्ञा, ति–प्रत्यय, तथा "निमित्तात् प्रत्ययविकारागमस्थ: स: षत्वम्' (३। ८।२६) से सकार को षकारादेश।
२. सुषुप्सति। स्वप् + सन् + ति। स्वप्तमिच्छति। 'त्रि ष्वप शये' (२। ३२) धातु से इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय, “आपितपितिपिस्वपिवपिशपिछुपिक्षिपिलिपिलुपिस्पेः पात्' (३७।२४) से अनिट्, “सनि चानिटि' (३।५।९) से अगुण, प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारण, द्विर्वचनादि, धातुसंज्ञा, तिप्रत्यय, तथा “निमित्तात्०" (३। ८। २६) से सकार को षकारादेश। --