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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपादः ३. पिपृच्छिषति। प्रच्छ् + सन् + ति। प्रष्टुमिच्छति। 'प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्' (५।४९) धातु से इच्छार्थ में सन् प्रत्यय, “स्मिपन्ज्व शूकृगृदृधप्रच्छां सनि" (३।७११) से इडागम, प्रकृत सूत्र से संप्रसारण, द्विर्वचनादि, “ऋवर्णस्याकार:' (३३१६) से ऋ को अ, “सन्यवर्णस्य' (३।३।२६) से अ को इ, धातुसंज्ञा, ति–प्रत्यय तथा “निमित्तात्" (३।८।२६) इत्यादि से सकार को षकारादेश।।५४८।
५४९. चायः किश्चेक्रीयिते [३। ४। ९] [सूत्रार्थ]
चाय् धातु को चेक्रीयितसंज्ञक प्रत्यय के परवर्ती होने पर 'कि' आदेश होता है।। ५४९।
[दु० वृ०] चायश्चेक्रीयिते परे किर्भवति। चेकीयते।। ५४९ । [दु० टी०]
चाय० । “चाय पूजानिशामनयोः'' (१ । ५८६)। केचित् कीति दीर्घ चेक्रीयितलगन्तार्थ पठन्ति – चेकीत:, चेकीथ: । लुग्विधिर्बलवानप्यादेशमपेक्षते वचनात् ।। ५४९ ।
[समीक्षा]
'चेकीयते' आदि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ 'चाय' धातु को 'कि' आदेश का विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है – “चाय: की" (अ०६। १॥ २१)। पाणिनि ने दीर्घ ईकारान्त 'की' आदेश किया है, जब कि कातन्त्रकार ने ह्रस्व इकारान्त 'कि' आदेश माना है। टीकाकार के अनुसार कातन्त्र के भी कुछ आचार्य चेक्रीयितलुगन्त के लिए दीर्घ ईकारान्त ही आदेश मानने के पक्ष में हैं।
[रूपसिद्धि]
१. चेकीयते। चाय् + य + ते। पुन: पुनश्चायति। 'चाय पूजानिशामनयोः' (१ । ५८६) धातु से, "धातोर्यशब्दश्चेक्रीयितं क्रियासमभिहारे'' (३ । २।१४) से चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'चाय' को 'कि' आदेश, द्विर्वचनादि, “कवर्गस्य चवर्ग:" (३। ३।१३) से ककार को चकारादेश, “गुणश्चेक्रीयिते'' (३। ३ । २८) से अभ्यासघटित इकार को गुण-एकार, “नाम्यन्तानां यणायियिन्नाशीश्च्विचेक्रीयितेषु ये दीर्घः' (३। ४। ७०) से दीर्घ, "ते धातवः” (३। २। १६) से 'चेकीय' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक ते - प्रत्यय तथा अन् विकरण।। ५४९।
५५०. प्यायः पि: परोक्षायाम् [३। ४।१०] [सूत्रार्थ]
चेक्रीयितसंज्ञक प्रत्यय तथा परोक्षासंज्ञक प्रत्ययों के परवर्ती होने पर 'प्याय्' धातु को 'पि' आदेश होता है।। ५५०।