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कातन्त्रव्याकरणम्
(अ० १।३।१) में वकारागम से मध्यमङ्गल तथा “अ अ" (अ० ८।४।६८) में अकार से अन्तमङ्गल उपस्थित करते हैं । कातन्त्रकार आचार्य शर्ववर्मा ने “ सिद्धो वर्णसमाम्नायः" (१।१।१) में 'सिद्ध' शब्द से आदिमङ्गल, “न य्वोः पदाद्योवृद्धिरागमः” (२।६।५०) में वृद्धिशब्द से मध्यमङ्गल तथा प्रकृत सूत्र में पठित वृद्धिशब्द से अन्तिम मङ्गल का विधान करके शिष्टाचार का पालन किया है । महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार जिन ग्रन्थों के आदि-मध्य-अन्त में मङ्गलाचरण किया जाता है, उन शास्त्र-ग्रन्थों की प्रतिष्ठा होती है, इन्हें पढ़ने वाले भी आयुष्मान् और यशस्वी ही सिद्ध होते हैं - "मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते, वीरपुरुषाणि च भवन्ति, आयुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति” (म० भा०-पस्पशा०. पृ० ४१; १।१।१) ।
पूर्वाचार्यों द्वारा वृद्धिसंज्ञा का प्रयोगमहाभाष्य इहापि कृतः पूर्वैरभिसम्बन्धः । कैः ? आचार्यैः (१।१।१) । काशकृत्स्नधातुव्याख्यान व्यादीनां वृद्धिस्तिसिमिषु, वृद्धिरादौ सणे (सूत्र ६९, १२६)। वाजसनेयिप्रातिशाख्य तद्धिते चैकाक्षरवृद्धावनिहिते (५।२९) । अर्वाचीन आचार्यों द्वारा इस संज्ञा का व्यवहार - जैनेन्द्रव्याकरण आदैगैप (१।१।१५)। हैमशब्दानुशासन वृद्धिरारैदौत् (३।३।१) । मुग्धबोधव्याकरण अच आरालैज् त्रिः (सू० ९)।
गुणसंज्ञक 'अ-ए-ओ' वर्गों की अपेक्षा वृद्धिसंज्ञक 'आ-ऐ-औ' के उच्चारण में मुख का विकास अधिक होता है, इसलिए उनकी वृद्धिसंज्ञा सार्थक (अन्वर्थ) मानी जाती
'तेभ्योऽपि विवृतावेडौ ताभ्यामैचौ तथैव च'
(पा० शि०, श्लोक २१) ॥८५५।
।। इत्याख्याते तृतीयाध्याये समीक्षात्मकोऽष्टमो
घुडादिपादः समाप्तः ।।
आचार्यशर्ववर्मप्रणीतं कातन्त्रं समाप्तम्