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तृतीये आख्याताध्याये सप्तमः इडागमादिपादः ३९९ [समीक्षा द्रष्टव्य सूत्र-सं० ७९५। [रूपसिद्धि
१. होता। हु + ता । 'हु दाने' (२।६७) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, इडागम का प्रतिषेध तथा धातुघटित उकार को गुणादेश ।
२. स्तोता। स्तु+ता । “ष्टुञ् स्तुतौ' (२।६५) से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, इडागम का प्रतिषेध तथा गुणादेश।।७९७।
७९८. ऋतोऽवृत्रः [३।७।१६] [सूत्रार्थ
'वृङ्-वृञ्' धातुओं को छोड़कर एकस्वरविशिष्ट ऋकारान्त धातु से उत्तर असार्वधातुकप्रत्ययनिमित्तक इडागम नहीं होता है।।७९८।
[दु० वृ०]
ऋदन्तादेकस्वराद् वृबृञ्वर्जितात् परमसार्वधातुकमनिड् भवति । कर्ता, हर्ता। अवृबृज इति किम्? वृ-वरिता। ऋत इति किम्? कृ-करिता। एकस्वरादिति किम्? जागरिता।।७९८।
[दु० टी०]
ऋतो०। वृबृज़ोरनुबन्धः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव । डीशीङोरिव गुणे कृते पुनरिड् न भवति, प्रकरणेऽस्मिन विहितविशेषणव्याख्यानात् ।।७९८।
[समीक्षा] द्रष्टव्य सूत्र-सं० ७९८। [विशेष वचन] १. वृबृज़ोरनुबन्धः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव (दु० टी०)। [रूपसिद्धि
, १. कर्ता। कृ+ता। ‘डु कृञ् करणे' (७७) धातु से श्तस्तनीविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद - प्र. पु० - ए० व० 'ता' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इडागम का प्रतिषेध तथा "नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३।५।१) से धातुघटित ऋकार को गुणादेश-अर्।
२. हर्ता। ह + ता। 'हञ् हरणे' (११५९६) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक परस्मैपद - प्र० पु० - ए० व० 'ता' प्रत्यय, इडागम का प्रतिषेध तथा गुणादेश।।७९८।
७९९. शके: कात् [३।७।१७] [सूत्रार्थ
ककारान्त ‘शक्' धातु से उत्तर में असार्वधातुकनिमित्तक इडागम नहीं होता है।।७९९।