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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषगलोपादिपादः पारूपमस्ति। केवलम् अदादित्वाद् अनो लुग् विद्यते। न च 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' (का० परि० ५२), 'लुग्लोपे न प्रत्ययकृतम्' इति वचनात्।। ७५० ।
[समीक्षा]
'पा' धातु से 'पिबति' 'घ्रा' से 'जिघ्रति' आदि शब्दरूप सिद्ध करने के लिए दोनों ही व्याकरणों में 'पा' को 'पिब' आदि ११ आदेश किए गए हैं। पाणिनि का सूत्र है- “पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्दृश्यर्तिसतिशदसदां पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्य धौशीयसीदा:' (अ० ७। ३ । ७८)। पाणिनि ने इन ११ आदेशों को एक ही सूत्र में तथा कातन्त्रकार ने ११ सूत्रों में निबद्ध किया है। पृथक् योगविधान का कारण स्पष्ट करते हुए टीकाकार दुर्गसिंह ने कहा है कि ११ धातुओं के स्थान में ११ आदेशों की क्रमबद्धता जानने में मन्दबुद्धि व्यक्तियों को गौरव होता है, उस गौरव से मुक्ति के लिए पृथक् सूत्र बनाए गए हैं- “पादीनां पिबादयो यथासंख्यमिति न कृतम्, मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवं स्यादिति" (कात० वृ० टी० ३।६। ७९)। इस प्रकार कातन्त्र में सूत्रसंख्याकृत गौरव होने पर भी अर्थावबोध की दृष्टि से लाघव ही माना जाएगा।
[विशेष वचन] १. नात्राकार उच्चारणार्थ: (टु० टी०)। २. प्रक्रियालाघवार्थं गुणरूपमेव कुर्यादिति मन्यते (वि० प०)। [रूपसिद्धि]
१. पिबति। पा + अन् + ति। 'पा पाने' (१। २६४) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्र० पु० – ए० व० 'ति' प्रत्यय, "अन् विकरण: कर्तरि" (३। २। ३२) से अन् – विकरण, प्रकृत सूत्र से 'पा' को 'पिब' आदेश तथा “असन्ध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च" (३।६। ४०) से अकारलोप।। ७५०।
७५१. घो जिघ्रः [३।६। ७१] [सूत्रार्थ 'अन्' विकरण के परे रहते 'ब्रा' धातु को 'जिघ्र' आदेश होता है।। ७५१ । [दु० वृ०] घ्राधातोरनि परे जिघ्रादेशो भवति। जिघ्रति ।। ७५१ । [समीक्षा] पूर्ववर्ती सूत्र- सं० ७५० की समीक्षा द्रष्टव्य है।। ७५१ । [रूपसिद्धि]
१. जिघ्रति। घ्रा + अन् + ति। 'घ्रा गन्धोपादाने' (१ । २६५) से. वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण तथा 'घ्रा' को 'जिघ्र' आदेश।। ७५१ ।