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कातन्त्रव्याकरणम्
३. अनेनेक्। अट् + निज् + ह्यस्तनी-दि। णिजिर् शौचपोषणयोः' (२। ८१) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक प्र० पु०-ए०व० 'दि' प्रत्यय, अडागम, अन्विकरण का लुक्, “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके” (३। ३। ८) से धातु को द्विवचन, अभ्याससंज्ञा, ज् का लोप, अभ्यासस्थ तथा धातुघटित इकार को गुण, प्रकृत सूत्र से ज् को ग्, ग् को क् तथा "व्यञ्जनाद् दिस्यो:” (३। ६। ४७) से 'दि' प्रत्यय का लोप।
४. अवेवेक्। अट् + विज् + ह्यस्तनी-दि। 'विजिर् पृथग्भावे' (२। ८२) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक 'दि' प्रत्यय, अडागम, अन्लुक तथा द्विवचनादि पूर्ववत्।। ७३५ ।
७३६. हो ढः [३।६। ५६] [सूत्रार्थ] धुट अथवा विराम के परे रहते धातुघटित हकार को ढकार आदेश होता है।। ७३६ । [दु० वृ०] धातोर्हकारस्य ढकारो भवति धुट्यन्ते च। लेढा, लेक्ष्यति, अलेट।। ७३६ । [समीक्षा]
'लेढा, सोढा, वोढा, वोदम्, तराषाट्' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ हकार को ढकारादेश का विधान दोनों ही व्याकरणों में उपलब्ध है। पाणिनि का सूत्र है – “हो ढः'' (अ० ८।२।३१)। यहाँ उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१.लेढा। लिह + श्वस्तनी-ता। लिह आस्वादने' (२। ६३) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, उपधागुण, प्रकृत सूत्र से धातुगत हकार को ढकार, "घढधभेभ्यस्तथोोऽध:" (३।८। ३) से तकार को धकार, “तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:" (३। ८। ५) से धकार को ढकार तथा “ढे ढलोपो दीर्घश्चोपधायाः'' (३। ८। ६) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप।
२. लेक्ष्यति। लिह + स्यति। लिह आस्वादने' (२।६३) धात् से भविष्यन्तीसंज्ञक 'स्यति' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से ह को द्, “पढो: क: से' (३।८। ४) से द को क्, उपधागुण, स् को ए तथा 'क्-ष्' संयोग से क्ष।।
३. अलेट् । अट् + लिह् + दि। लिह आस्वादने' (२।६३) धातु से हस्तनीसंज्ञक दि' प्रत्यय, अडागम, अन्लुक्, प्रकृत सूत्र से ह को द, द को ट्, उपधागुण तथा 'दि' प्रत्यय का लोप।। ७३६।
७३७. दादेर्घः [३।६। ५७] [सूत्रार्थ]
धुट तथा विराम के परे रहते दकारादि धातु के हकार को घकार आदेश होता है।। ७३७।