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कातन्त्रव्याकरणम्
उसको स्वरवद्भाव, “ओ अव्” (१ । २ । १४) से ओ को अवादेश, 'गव्य' की "ते धातवः' (३। २। १६) से धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष - एकवचन 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार का लोप।
२. गव्यते। गो + आयि + ते। गामिच्छति, गौरिवाचरति। 'गो' शब्द से "कर्तुरायिः सलोपश्च' (३। २। ८) सूत्र द्वारा 'आयि' प्रत्यय, “नामिव्यञ्जनान्तादायेरादेः'' (३। ६। ४२) से आकारलोप, प्रकृत सूत्र से 'आयि' को स्वरवद्भाव होने से "ओ अव्' (१ । २।१४) सूत्र द्वारा 'ओ' को अवादेश, 'गव्य' की धातुसंज्ञा, ते - प्रत्यय, अन् – विकरण तथा अकारलोप।। ६०७।
६०८. औतश्च [३। ४। ६८]
[सूत्रार्थ
औकार से परवर्ती 'यिन् – आयि' प्रत्ययों को स्वरवद्भाव होता है।। ६०८। [दु० वृ०]
औत: परौ यिन्नायी स्वरवद् भवतः। नाव्यति, नाव्यते। यथासङ्ख्यभयात् पृथगुच्यते।। ६०८।
[दु० टी०]
औ० । औकारमिच्छत्याचरति वा औशब्दादायौ यिनि च कृते 'आव्यति, आव्यते' इति भवितव्यमेव ।। ६०८।
[बि० टी०]
औत० । औकारमिच्छतीति, औकार इवाचरतीति च वाक्ये यिन्नायी ‘आव्यति, आव्यते' इति टीका।। ६०८।
[समीक्षा]
पूर्ववर्ती सूत्र तथा प्रकृत सूत्र को एक साथ ही पढ़ना चाहिए, जैसा कि पाणिनि ने भी “वान्तो यि प्रत्यये' (६ । १। ७९) सूत्र में किया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार दुर्गसिंह ने कहा है कि 'ओदौतो:- यिन्नायी' ऐसा सूत्रपाठ होने पर यथासङ्ख्य (ओ से यिन् तथा औ से आयि का अन्वय) का भय या भ्रम हो सकता है, वह न हो, अर्थात् स्पष्टावबोधार्थ पृथक् सूत्र बनाया गया है – 'यथासंख्यभयात् पृथगुच्यते'।
[रूपसिद्धि]
१. नाव्यति। नौ + यिन् + ति। नावमात्मन इच्छति, नौरिवाचरति। नौ' शब्द से यिन् प्रत्यय, अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, प्रकृतसूत्र से स्वरवद्भाव, ओकार को 'आव्' आदेश, ‘नाव्य' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, अन् - विकरण तथा अकार का लोप।