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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: [समीक्षा]
'कुर्वः, कुर्म:' शब्दों के सिद्ध्यर्थ अपेक्षित उ–विकरण के लोप का विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है – “नित्यं करोते:' (अ० ६।४।१०८)।
[रूपसिद्धि]
१. कुर्वः। कृ + उ + वस्। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक उत्तमपुरुष-द्विवचन ‘वस्' प्रत्यय, “तनादेरु:' (३।२।३७) से उ-विकरण, “करोते:" (३।५।४) से कृधातुगत ऋ को गुण-अर्, “नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३। ५। १) से उ–विकरण को गुणादेश प्राप्त होने पर “द्वित्वबहुत्वयोश्च परस्मै' (३। ५। १९) से उसका निषेध, “अस्योकार: सार्वधातुकेऽगुणे'' (३।४।३९) से अकार को उकार, प्रकृत सूत्र से उ-विकरण का लोप तथा सकार को विसर्गादेश।
२. कुर्मः। कृ + उ + मस्। 'डु कृञ् करणे' (७७) से मस् प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।। ५७६।
५७७. ये च [३।४। ३७] [सूत्रार्थ]
यकार के परवर्ती होने पर कृ धातु से होने वाले विकरण के उकार का नित्य लोप होता है।। ५७७।
[दु० वृ०] करोतेर्नित्यं विकरणोकारस्य लोपो भवति ये च परत:। कुर्यात्, कुर्याताम्, कुर्युः।। ५७७। [दु० टी०]
ये च। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे उकारलोपस्य दीर्घविधावस्थानिवद्भावाद् व्यञ्जने दीर्घत्वं प्राप्तं कुर्छरोनिषिध्यते।। ५७७ ।
[समीक्षा]
'कुर्यात्, कुर्याताम्, कुर्युः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ विकरण उकार के लोप की अपेक्षा होती है, इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का भी यही सूत्र है – “ये च'' (अ० ६।४।१०९)।
[रूपसिद्धि]
१. कुर्यात्। कृ + उ + यात्। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से सप्तमीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष–एकवचन ‘यात्' प्रत्यय, उ-विकरण, कृधातु-गत ऋ को गुण-अर्, अ को उ, उसका गुण प्राप्त होने पर उसका निषेध तथा प्रकृत सूत्र से उ–विकरण का लोप।
२. कुर्याताम्। कृ + उ + याताम्। 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से सप्तमीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-द्विवचन याताम्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।