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तृतीये आख्याताध्याये तृतीयो बिचनपादः [समीक्षा]
'पापच्यते, यायज्यते' इत्यादि चेक्रीयितप्रत्ययान्त शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ अभ्यासघटित अकार को दीघदिश करने की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में की गई है | पाणिनि का सूत्र है- “दीर्घोऽकितः" (अ०७।४।८३)। पाणिनि ने जितने कित् आगम किए हैं, वे कातन्त्र व्याकरण में अनुबन्धरहित हैं, अतः पाणिनि ने 'अकितः' शब्द का तथा शर्ववर्मा ने 'अनागमस्य' शब्द का उपादान किया है । 'री-नी' आदि आगमों के होने पर अभ्यास ह्रस्वान्त नहीं रहेगा, अतः 'अनागमस्य' यह प्रतिषेध व्यर्थ होकर ज्ञापित करता है कि अभ्यास-विकारों में अपवादविधि सामान्यविधि को बाधित नहीं करती है। इसीलिए मानवध्दानशान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य" (३।२।३) सूत्रविहित दीघदिशरूप अपवाद के रहने पर भी “सन्यवर्णस्य" (३।३।२६) से प्राप्त इत्त्वादेशरूप सामान्यविधि प्रवृत्त होती ही है । अतः 'मीमांसते, दीदांसते' इत्यादि शब्दरूप उपपन्न होते हैं।
[विशेष वचन]
१. अनागमस्येति वचनम् 'अभ्यासविकारेष्वपवादो नोत्सर्गं बाधते' इति ज्ञापनार्थम् (दु० वृ०)।
२. दीर्घग्रहणं न सुखार्थमुच्यते (दु० टी०)। ३. 'आ' इति सिद्धे दीर्घग्रहणं सुखार्थम् (बि० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. पापच्यते । पच्+ चेक्रीयित-य+ते । 'डु पचष् पाके' (१।६०३) धातु से 'पुनः पुनः पचति' इस अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक यप्रत्यय, द्विर्वचन, अभ्यासकार्य, प्रकृत सूत्र से अभ्यासगत ह्रस्व अकार को दीर्घ, "ते धातवः" (३।२।१६) से 'पापच्य' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'ते' प्रत्यय, अन्-विकरण तथा पूर्ववर्ती अकार का लोप ।। ५२६।। ५२७. वन्चिस्रन्सिध्वन्सिभ्रन्सिकसिपतिपदिस्कन्दामन्तो नीः [३।२।३०]
[सूत्रार्थ]
वन्च-स्रन्स्-ध्वन्स्-भ्रन्स्-कस्-पत्-पद् तथा स्कन्द् धातु के अभ्यास के अन्त में 'नी' आगम होता है चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय के परवर्ती होने पर ।। ५२७।