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विषयानुक्रमणी
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की योजना अगुणार्थ, 'शिडन्तात् ' शब्द में अन्तग्रहण का सुखार्थ होना, हेमकर आदि आचार्यों के मत, 'सण्' के लिए पाणिनि का 'क्स' प्रत्यय, 'श्रि-द्रु-सु' आदि धातुओं से 'चण्' प्रत्यय, 'काशिकावृत्ति-पञ्जी' आदि के विविध मत, 'चण्' के लिए पाणिनीय ‘चङ्’ प्रत्यय,‘अस् वच्' आदि छह धातुओं से 'अण्' प्रत्यय, चेक्रीयितलुगन्त (पाणिनीय यङ्लुगन्त) का छान्दसत्व, अवयवसिद्धि की अपेक्षा समुदायसिद्धि की बलवत्ता, ‘पुष-द्युत्’ आदि धातुओं से 'अणू' प्रत्यय, सौत्र स्तन्भु धातु, आम्नाय से ही सभी विप्रतिपत्तियों का समाधान, चकार का अनुक्तसमुच्चयार्थ होना, धातुओं की अनेकार्थकता, रुचादिगण का आकृतिगण माना जाना, दण्डकधातुएँ, अद्यतनी विभक्ति में इच् प्रत्यय का विधान, सूत्र का गुरुकरण योगविभाग के लिए, बुद्धिकल्पना से योगविभाग, शर्ववर्मकृत कातन्त्रव्याकरण के सूत्रों में आदि-मध्य-अन्तलोप की उपस्थिति -
आदिलोपोऽन्तलोपश्च मध्यलोपस्तथैव च । विभक्तिपदवर्णानां दृश्यते शार्ववर्मिके ॥
'इच्' के लिए पाणिनीय 'चिण्' का विधान, साम्प्रदायिक मान्यता, हेमकरमत का निरसन, सार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते सभी धातुओं से 'यण्' प्रत्यय, पद से ही पदार्थज्ञान का होना अवयव से नहीं, शास्त्र से अवयवों की कल्पना ]
१३. ‘अन्-यन्-नु-न-उ-ना' विकरण
२३९-५३ [सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्ययों के परे रहते भ्वादिगणपठित धातुओं से 'अन्', दिवादिगणपठित धातुओं से 'यन्' स्वादिगणपठित धातुओं से 'नु', रुधादिगणपठित धातुओं से ‘न’, तनादिगणपठित धातुओं से 'उ' तथा क्र्यादिगणपठित धातुओं से 'ना' विकरण का विधान, पूर्वाचार्यों द्वारा विकरण की प्रसिद्धि, प्रकृति-प्रत्यय के मध्य में विकरण का विधान, पाणिनीय ' शप्-श्यन् श्नु-श- श्नम् -उ-श्ना' विकरणों की योजना, 'श्रु' धातु को 'शृ' आदेश, 'धातुप्रदीप' आदि ग्रन्थों के मतों का उद्धरण, 'खव्नाति' प्रयोग में लेखक का प्रसाद, प्रकृति-प्रत्यय द्वारा एक साथ प्रत्ययार्थ का कथन, वररुचि के अनुसार प्रकृत तथा उत्तरवर्ती सूत्र - हेतु 'पर' शब्द का उपादान, आख्याता क्रियाप्रधान होना, अनेक सौत्र धातुएँ, वररुचिवृत्ति का उद्धरण ]
१४. आन - आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्यय, कर्मवद्भाव
२५३-७१
['हि' प्रत्यय के परे रहते विकरणसंज्ञक 'आन' प्रत्यय का विधान, पाठ की प्रामाणिकता, भाववाच्य तथा कर्मवाच्य अर्थ में आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्ययों का विधान, क्रियापदार्थ तथा क्रिया के दो भेद, नियम की परिभाषा, एकवचन के भी कालसंख्याकर्म आदि अर्थ, सदवस्था - असदवस्था की परिभाषाएँ, अन्वयमात्र स अनवृत्ति नहीं होती, विभक्तिसंज्ञा की अन्वर्थता, कर्म की क्रियावचनता तथा कारकवचनता,