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कातन्त्रव्याकरणम्
(३।१।२१) से य-प्रत्यय, "चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु ” ( ३ । ३ । ७) से धातु को द्विर्वचन, "कवर्गस्य चवर्ग: " ( ३।३।१३) से ककार को चकारादेश की प्राप्ति, प्रकृत सूत्र से उसका निषेध, "गुणश्चेक्रीयिते” (३ । ३ । २८) से अभ्यासगत उकार को गुण, "नाम्यन्तानां यणा (३।४।७०) से धातुगत उकार को दीर्घ, "ते धातवः " ( ३।२।१६ ) से 'कोकूय' की धातुसंज्ञा तथा उससे वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष एकवचन 'ते' प्रत्यय || ५११ । ५१२. ह्रस्वः [३।३।१५ ]
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[ सूत्रार्थ ]
अभ्याससंज्ञक शब्द के अन्त में विद्यमान दीर्घ स्वर को ह्रस्व आदेश होता
है || ५१२ |
[दु० वृ०]
स्वरान्तस्याभ्यासस्य ह्रस्वो भवति । तस्थौ, निनीषति, लुलूषति, डुढौके ।। ५१२ । [दु० टी०]
ह्रस्वः । नात्र सामर्थ्यप्राप्तेन स्वरेणाभ्यासो विशिष्यते व्यवच्छेद्याभावात्, अभ्यासश्च स्वरान्त एव सम्भवतीत्याह - स्वरान्तस्याभ्यासस्येति । ढौकृ – डुढौके | एवं व्येञ् - विव्याय । चैत्रीयितुं गोनदीयितुं नौयमानीयितुमिच्छति - चिचैत्रीयिषति, जुगोनदीयिषति, नुनौयमानीयिषति । ५१२ ।
[समीक्षा]
'तस्थौ, बुभूषति, निनीषति' इत्यादि शब्दरूपों के साधनार्थ अभ्यासान्त में वर्तमान ‘आ-ई-ऊ' स्वरों का ह्रस्वविधान वाञ्छित होता है । इसकी पूर्ति दोनों ही आचार्यों ने की है । पाणिनि का भी यही सूत्र है - " ह्रस्वः " ( अ० ७ | ४|५९) । इस प्रकार उभयत्र समानता है ।
[रूपसिद्धि]
१. तस्थौ । स्था + परोक्षा - अट् । 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ ' (१।२६७) धातु परोक्षासंज्ञक परस्मैपद- प्रथमपुरुष एकवचन अट् प्रत्यय, " धात्वादेः षः सः " ( ३ | ८ | २४ ) से मूर्धन्य षकार को दन्त्य सकारादेश, 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः ' (का० परि० २७) इस न्याय के अनुसार ठकार को थकार, “चण् से स्था को द्विर्वचन, पूर्ववर्ती 'स्था' की
परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु” (३।३।७ ) अभ्याससंज्ञा, “शिट्परोऽघोषः " ( ३ । ३ । १८ ) से 'धा' का शेष, प्रकृत सूत्रं द्वारा