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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा
'ओषाञ्चकार, विदाञ्चकार, जागराञ्चकार' प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ 'उष् -विद् - जाग' धातुओं से आम् प्रत्यय करने की आवश्यकता होती है, इसकी पूर्ति दोनों ही आचार्यों ने की है | पाणिनि का सूत्र है - "उषविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम्" (अ० ३।१।३८)। व्याकरण में ‘वा - अन्यरस्याम्' शब्द समानार्थक हैं | पाणिनि ने 'अन्यतरस्याम्' शब्द का तथा कातन्त्रकार ने 'वा' शब्द का प्रयोग किया है। व्याख्याकारों ने 'वृत्ति - भाष्य - न्यास' के अभिमतों को प्रस्तुत किया है।
[रूपसिद्धि]
१. ओषाचकार । उष + आम् + कृ+ अट् । 'उष दाहे' (१।२२९) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद प्रथमपुरुष - एकवचन अट् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से आम् प्रत्यय, उकार को गुण, 'कृ' का अनुप्रयोग, द्विर्वचन, अभ्यासस्थ ऋ को अर्, रेफ का लोप, ककार को चकार तथा ऋ को वृद्धि आर् आदेश | आम्प्रत्यय के वैकल्पिक होने से आम् प्रत्यय न होने पर 'उवोष' प्रयोग बनता है।
२-३. विदाञ्चकार । विद् + आम् + कृ + अट् । जागराधकार | जागृ + आम् + कृ+ अट् । शब्दसाधनप्रक्रिया पूर्ववत् ।। ४७०।
४७१. भीहीभूहुवां तिवच्च [३।२।२१] [सूत्रार्थ]
'भी - ह्री-भृ-हु' धातुओं से परवर्ती आम् प्रत्यय विकल्प से होता है परोक्षाविभक्ति के पर में रहने पर | इस आम्, प्रत्यय के पर में रहने पर 'ति' विभक्ति की तरह कार्य होता है।
[दु० वृ०]
एषाम् आम् परो भवति वा परोक्षायाम्, स च तिरिव, तेन द्वित्वम् इत्त्वं चेति । बिभयाञ्चकार, बिभाय । जिह्रयाञ्चकार, जिह्वाय । बिभराञ्चकार, बभार । जुहवाञ्चकार, जुहाव ।।४७१।
[दु० टी०]
भीही० । 'त्रिभी भये, ही लज्जायाम्, हु धा भृञ् धारणपोषणयोः, हु दाने' (२।६८, ६९, ८५, ६७) । तिवचनस्य वर्तमानकालत्वम्, कर्तृत्वम्, एकवचनत्वम्, प्रथमपुरुषत्वं च यद्यप्यस्ति तथापि परोक्षायां प्रतिपन्नम् इति सार्वधातुकत्वमेवा