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विषयानुक्रमणी
.२९ विधान, रञ्जि' धातु के अनेक अर्थ, व्याख्याकारों द्वारा 'तत्र जातः- तत्र भवः' आदि अर्थों में अण् प्रत्यय का विधान, दो प्रकार की पूजा, शिष्टप्रयोग के अनुसार अन्य शब्दों का भी समावेश, शुद्धा-गौणी के रूप में द्विविध लक्षणा] । ३०. दीव्यति आदि अर्थों में इकण प्रत्यय पृ० सं०४४८-५८
['दीव्यति - संसृष्ट-तरति-चरति-पण्य-शिल्प-नियोग-क्रीत' अर्थों में इकण् प्रत्यय, 'उञ्छति-करोति-हन्ति-तिष्ठति' आदि अर्थों में व्याख्याकारों द्वारा इकण् प्रत्यय का विधान, विज्ञान-कौशलरूप शिल्प, अर्थप्रधानरूप निर्देश, क्रीतादिगण की आकृतिगण के रूप में मान्यता] | ३१. तार्य आदि अर्थों में य प्रत्यय
पृ० सं०४५८ - ६२ [नौ शब्द से तार्य अर्थ में, विष शब्द से वध्य अर्थ में, तुलाशब्द से सम्मित अर्थ में तथा सप्तम्यन्त शब्द से साधु अर्थ में य प्रत्यय, पाणिनि द्वारा प्रपञ्चार्थ किया गया अन्य अर्थों का निर्देश] । ३२. ईय-यत्-पति-त-त्व-यण् प्रत्यय
पृ० सं०४६२-७८ [हित अर्थ में ईय-यत् प्रत्यय, सादृश्य अर्थ में वति प्रत्यय, प्रवृत्तिनिमित्तरूप भाव के अभिधेय होने पर त-त्व-यम् प्रत्यय, प्रकीर्ति शब्द का अर्थ = महाकवियों की उक्ति, तद्धितों की आकृति प्रधानता, भाव शब्द की व्युत्पत्ति, भाव के ५ अर्थ, अवस्थाभेद से एक में भी अनेकता, जाति की व्याख्या, सूत्ररचना की विचित्रता]। ३३. मन्तु-वन्तु-इन-विन्-ड-म-तीय-थ-तमट् प्रत्यय पृ० सं०४७८-९७
['अस्यास्ति' अर्थ में बहुत्वादि अर्थ की विवक्षा के अनुसार 'मन्तु-वन्तु-इन्-विन्' ये चार प्रत्यय, संख्यावाची शब्द से पूरण अर्थ में 'ड-म-तीय' प्रत्यय,कति-कतिपय शब्दों से 'थ' प्रत्यय, विंशत्यादि शब्दों से तमट प्रत्यय, विवक्षार्थक इतिशब्द, ब्रह्म-वर्णशब्द की व्याख्या, लोकव्यवहार पर लिङ्गविधान आश्रित, ज्ञापक वचनों की वैकल्पिकता] । ३४. विभक्तिसंज्ञा, 'इ-एत-इत्-अ' आदेश, 'तस्-व-ह-क्व-कु-दा-हि-अधुनादानीम-था-पमु' प्रत्यय
पृ०सं०४९८-५२३ [ह्यादिगणपठित शब्दों से भिन्न सर्वनामसंज्ञक शब्दों से तथा बहु शब्द से पर में होने वाले प्रत्ययों की विभक्तिसंज्ञा, पाणिनि के विभक्तिसंज्ञक ११ प्रत्यय