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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्षः कारकपादः [क० च०]
न नि० । ननु घटस्य विधिरित्यत्र कथं कर्मणि षष्ठी किप्रत्ययस्य निष्ठादित्वात् ? सत्यम् । तन्प्रत्ययस्य साहचर्यात् ताच्छीलिक एव "आदृवर्णोपधालोपिनाम्"(४।४।५३) इत्यादिना विहितः किप्रत्ययो गृह्यते । न तूपसर्गे दः किरित्यनेन विहित इति । अथवा आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वात् "आदृवर्णोपधालोपिनाम्" (४।४।५३) इत्यादिना विहित एव गृह्यते इति । "सत्यानुकूला नरकस्य जिष्णवः" इत्यादौ संबन्धविवक्षया षष्ठीति केचित् । 'नत्रा निर्दिष्टस्यानित्यत्वात्' (का० परि० ६७) इति प्रायः ।।३२७।
[समीक्षा]
'क्त -क्तवन्तु' आदिकृप्रत्ययान्त शब्दों के प्रयोग में कर्ता-कर्म में प्राप्त षष्ठीविभक्ति का निषेध दोनों व्याकरणों में किया गया है । अन्तर यह है कि पाणिनि ने सभी प्रत्ययों को सूत्र में शब्दशः पढ़ा है - "न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्" (अ० २।३।६९), जबकि कातन्त्रकार ने इन सभी के बोधार्थ निष्ठादि गण की व्यवस्था की है । इस प्रकार सूत्ररचनाशैली में भिन्नता होने पर भी अभीष्टसिद्धि में समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. देवदत्तेन कृतम् । निष्ठासंज्ञकक्तप्रत्ययान्त ‘कृतम्' शब्द के प्रयोग में कर्ता देवदत्त में प्राप्त षष्ठी विभक्ति का प्रकृत सूत्र द्वारा निषेध होने पर “कर्तरि च" (२।४।३३) सूत्र से तृतीया विभक्ति । देवदत्त + टा | “ इन टा" (२।१।२३) से टा को इन तथा “अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) से अकार को एकार - परवर्ती इकार का लोप ।
२. ओदनं भुक्तवान् । कर्म में प्राप्त षष्ठी का निषेध होने पर "शेषाः कर्मकरण०" (२।४।१९) इत्यादि से द्वितीया विभक्ति ।
३. ओदनं पचन् । ओदनं पचमानः। निष्ठादिगण में पठित, शन्तृङ्प्रत्ययान्त ‘पचन्' तथा आनश्प्रत्ययान्त 'पचमानः' के कर्म ‘ओदन' में प्राप्त षष्ठीविभक्ति का प्रकृत सूत्र से निषेध होने पर "शेषाः कर्मकरण०" (२।४।१९) इत्यादि से द्वितीया विभक्ति ।।३२७।