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कातन्वव्याकरणम्
का साधकतम होता है । अतः यह फल निष्पत्ति अवश्यमेव करता है । परन्तु हेतु उसे कहते हैं जो फलनिष्पादक न होने पर भी क्रिया करने की योग्यतामात्र रखता हो । पाणिनीय व्याकरण के व्याख्याकार भट्टोजिदीक्षित ने इसे विस्तार से कहा है - "द्रव्यादिसाधारणं निर्व्यापारसाधारणं च हेतुत्वम् । करणत्वं तु क्रियामात्रविषयं व्यापारनियतं च । दण्डेन घटः, पुण्येन गौरवर्णः, पुण्येन दृष्टो हरिः" (सि० कौ०कारक० २।३।२३)।
[रूपसिद्धि]
१. अनेन वसति । अन्न के कारण निवास करता है । यहाँ निवास कराने की योग्यता तो अन्न में है, परन्तु साधकतमता नहीं है । अतः 'अन्न' हेतु है करण नहीं है । इससे प्रकृत सूत्र द्वारा तृतीया विभक्ति । अन्न +टा । "इन टा" (२।१।२३) से 'टा' को इन, तथा “अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) से अ को ए-इकारलोप ।
२. धनेन कुलम् । धन से वंशमर्यादा सुरक्षित रहती है । यहाँ वंशमर्यादा बनाए रखने की योग्यता धन में है, अतः हेतु होने के कारण 'धन' प्रातिपदिक (लिङ्ग) से प्रकृत सूत्र द्वारा तृतीया विभक्ति ।।३१५।
[विशेष वचन] १. योग्यतामात्रविवक्षया करणे न सिध्यतीति वचनम् (दु० वृ०)।
२. अर्थशब्दः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव । फलमनिष्पादयन्नपि क्रियायोग्यतया लोके हेतुरुच्यते (दु० टी०).
३. 'अग्निरत्र धूमात्' इति गुणशब्देन सम्बन्धिमात्रं परार्थरूपापन्नं गृह्यते न द्रव्याश्रितमिति किंव्याख्यानमेतत् (दु० टी०)।
४. हेतुर्द्विविधः शास्त्रीयो लौकिकश्च । तत्र “कारयति यः स हेतुश्च" (२।४।१५) इति शास्त्रीयो हेतुः। फलसाधनयोग्यपदार्थो लौकिक इति (क० च०)।
५. हेत्वधीनः कर्ता, कर्बधीनं करणम् (वं० भा०) ॥३१५ ।