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कातन्त्रव्याकरणम्
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ने ही विभक्तिविशेष 'प्रथमा द्वितीया - तृतीया-चतुर्थी - पञ्चमी-षष्ठी - सप्तमी - संबोधन (शर्ववर्मा - आमन्त्रण)' का प्रयोग पूर्वाचार्यों के ही अनुसार किया है, उनकी कोई परिभाषा नहीं दी है । आठवीं विभक्ति के रूप में पारिभाषिक शब्द ' संबोधन' का प्रयोग पूर्ववर्ती ग्रन्थों में मिलता है, जिसे पाणिनि ने अपना लिया । कातन्त्रकार ने अर्थलाघव की दृष्टि से 'आमन्त्रण' शब्द का व्यवहार किया है
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" सिद्धस्याभिमुखीभावमात्रमामन्त्रणम्' (दु० टी०) ।
[ रूपसिद्धि ]
१-२. हे पुत्र! हे पुत्र+सि । हा पुत्र ! हा पुत्र + सि । लिङ्गार्थ से भिन्न आमन्त्रणरूप पदार्थ के रहने पर 'पुत्र' शब्द से प्रकृत सूत्र द्वारा प्रथमा विभक्ति की प्रवृत्ति । अतः परवर्ती सिप्रत्यय का " हस्वनदी श्रद्धाभ्यः सिर्लोपम्” (२ । १ । ७१ ) सूत्र द्वारा लोप |
३-४. धिक् पुत्रौ ! धिक्पुत्र + औ । है पुत्राः । है पुत्र + जस् | लिङ्गार्थ से भिन्न आमन्त्रणरूप अर्थ के विद्यमान होने से 'पुत्र' शब्द में प्रकृत सूत्र से प्रथमा विभक्ति का विधान || ३०३ ।
३०४. शेषाः
कर्मकरणसम्प्रदानापादानस्वाम्याद्यधिकरणेषु [ २।४।१९ ]
[ सूत्रार्थ ]
शेष = कर्म-करण-सम्प्रदान- अपादान-सम्बन्ध तथा अधिकरण । कर्म में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पञ्चमी, स्वस्वामिभाव आदि सम्बन्ध में षष्ठी तथा अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है || ३०४ |
[दु० वृ० ]
शेषाः द्वितीयाद्याः षड् विभक्तयः कर्मादिष्वर्थेषु षट्सु यथासंख्यं भवन्ति । कर्मणि – कटं करोति । करणे - परशुना छिनत्ति । संप्रदाने गुरवे गां ददाति । अपादाने - वृकाद् भयम् | स्वाम्यादौ- देवदत्तस्य स्वामी, यज्ञदत्तस्य स्वम्, विष्णुमित्रस्य संबन्धः ।
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१. द्र०, वा० प० ३।७।१६३ - सिद्धस्याभिमुखीभावमात्रं संबोधनं विदुः ।