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कातन्त्रव्याकरणम् जातेरभावात् ? सत्यम् । श्रुतत्वादिह वर्णशब्दलोपो ज्ञातव्यः । यथा “यदुगवादितः" (२।६।११) इत्यत्रोक्तमिति । हेमकरस्तु विवक्षया बहुवचनम् । यथा “शमामष्टानां
श्ये" (६।१।१०२) इति चान्द्रसूत्रमित्युक्तवान् । त्वप्रत्ययबलादेव बहुत्वप्रतीतिरिति टीका ||२६२ ।
[समीक्षा]
'अदस + अम् , अदस् + औ, अदस् + शस्' इस अवस्था में पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ने ही म् (द्) से परवर्ती वर्ण के स्थान में उवदिश करके 'अमुम्, अमू, अमून' शब्दरूप सिद्ध किए हैं। अन्तर यह है कि पाणिनि उवणदिश तथा मकारादेश का विधान एक ही सूत्र द्वारा करते हैं - "अदसोऽसेर्दाढ दो यः" (अ० ८।२।८०), जब कि कातन्त्र में एतदर्ध दो सूत्र स्वतन्त्र हैं । अतः प्रक्रिया की दृष्टि से उभयत्र साम्य ही है ।
[रूपमिद्धि]
१. अमुम् । अदस् + अम् । “त्यदादीनाम विभक्तौ" (२।३।२९) से स् को अ, "अकारे रोपम्" (२।१।१७) से दकारोत्तरवर्ती अकार का लोप, “अदसः पदे मः" (२।२।४५) से द् को म् तया प्रकृत सूत्र से अकार को उकारादेश ।
२. अमू। अदस् + औ । पूर्ववत् स् को अ, पूर्ववर्ती अ का लोप, अ को औऔ का लोप, द् को म् तथा प्रकृत सूत्र से औकार को ऊकारादेश !
३. अमून् । अदस् + शस् । पूर्ववत् स् को अ, अलोप, समानलक्षणदीर्घ - परवर्ती अकारलोप. "शसि सस्य ननः" (२।१!१६) से स को न, द् को म् तथा प्रकृत सूत्र से आकार को ऊकारादेश !।२६२ ।
२६३. एद् बहुत्वे त्वी [२।३।४२] [सूत्रार्थ)
अदस्-शब्दगत मकार से परवर्ती वर्ण के स्थान में बहुवचन में प्रवृत्त होने वाले एकार को ईकारादेश होता है !!२६३।
[दु० वृ०]
अदसो मात् परो बहुत्वे निष्पन्न एद् ईभवति । अमी, अमाभ्यः । हुत्वे इति किम् ? अगू । मादिति किम् ? अमुकेभ्यः । तुशब्द रत्तरत्र बहुत्वनिवृत्त्यर्थः ।।२६३ ।