SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ कातन्त्रव्याकरणम् प्राप्नोतीत्यर्थः, इत्याह – अथवेति । अथ गौरिति व्यक्तिराश्रयणीया। तथा च गकारादेोरिति ओकारान्तस्यैव भविष्यतीत्याह - किञ्च इति ।। १८९! [समीक्षा] 'गो + सि, गो+औ, गो + जम्' इस अवस्था में 'गो' शब्दघटित ओ को 'औ' आदेश करके कातन्त्रकार 'गौः, गादौ, गावः' शब्दरूप सिद्ध करते है । पाणिनि ने एतदर्थ "गोतो णित्" (अ० ७।१।९०) सूत्र से सु आदि प्रत्ययों में णित्त्व का अतिदेश किया है, जिससे “अचो णिति" (अ० ७।२।११५) से वृद्धि आदेश होकर उक्त रूप संपन्न होते हैं । अतः यहाँ पाणिनीय प्रक्रिया में गौरवप्रतीति होती है और कातन्त्रीय प्रक्रिया में लाघवप्रतीति । [रूपसिद्धि] १. गौः। गो + सि । प्रकृत सूत्र द्वारा गोशब्दघटित ओकार को औकारादेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसर्ग । २. गावौ । गो+औ । प्रकृत सूत्र से गो-घटित ओ को औ आदेश तथा “औ आव" (१।२।१५) से औ को 'आव्' आदेश । ३. गावः । गो + जस् । प्रकृत सूत्र द्वारा गोशब्द-घटित ओकार को औकार, "ओ आव" (१।२११५) से औ को आव् आदेश तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से सकार को विसर्ग ।। १८९। १९०. अम्शसोरा [२।२।३४] [सूत्रार्थ] द्वितीयाविभक्ति- एकवचन 'अम्' प्रत्यय तथा द्वितीयाबहुद न 'शस्' प्रत्यय के परे रहते ‘गो शब्द के अन्तिम वर्ण 'ओ' के स्थान में 'आ' आदेश होता है ।। १९०। [दु० वृ०] गोशब्दस्यान्त आ भवति अम्शसोः परयोः । गाम्, गाः । दीर्घः किम् ? पुंसि "स्त्रियामादा" (२।४।४९) न स्यात् ।। १९०।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy