SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ कातन्वव्याकरणम् एकवर्णत्वादन्ते भविष्यतीत्याह - अकार इत्यादि । "ईयोर्वा" (२।२।५४) इति विकल्पपक्षे अकारस्य स्थितिरस्तीति भावः ।। १६९ । [क० च०] अस्थि० । प्रसिद्ध शास्त्रप्रवृत्तिायसीत्याह - किञ्चेति ।। १६९ । [समीक्षा] 'अस्थि + टा, दधि + टा' इस अवस्था में कातन्त्रकार 'इ' को 'अन्' आदेश और पाणिनि “अस्थिदपिसक्ष्याणामनदात्तः" (अ०७।१।७५) से 'अनङ्' आदेश करते हैं । पाणिनि ने 'ङ' अनुबन्ध की योजना "च्चि" (अ० १।१।५३) सूत्र के प्रवृत्त्यर्थ की है, जबकि कातन्त्रकार "अन्तः" पद सूत्र में पढ़कर अन्त्य वर्ण के स्थान में आदेश का विधान करते हैं। इस प्रकार कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र द्वारा दो निर्देश करके लाघव किया है। [रूपसिद्धि १. अस्ना ।अस्थि + टा । प्रकृत सूत्र द्वारा 'अस्थि' शब्द के अन्त्यावयव इकार के स्थान में 'अन्' आदेश तथा “अवमसंयोगादनोऽलोपः" (२।२।५३) से 'अन्' के अकार का लोप । २. दाना। दधि + टा | प्रकृत सूत्र द्वारा 'दधि' शब्द के अन्त्यावयव इकार दे, स्थान में 'अन्' आदेश तथा “अवमसंयोगादनोऽलोपोऽलुप्तवच्च पूर्वविधौ" (२।२।५३) से 'अन्' के अकार का लोप । ३-६. सक्थना । सक्थि + टा । अक्ष्णा । अक्षि + टा । अत्यस्ता । अत्यस्थि + टा | अतिपना । अतिदधि + टा । प्रकृत सूत्र से अन्त्यावयव इकार को 'अन्' आदेश तथा 'अन्' के अकार का लोप । [विशेष] व्याख्याकारों ने कहा है कि 'अन्' आदेश की जगह 'न्' आदेश करना ही उचित था । इससे न्-रूप एकवर्णविधि होने के कारण 'एकवर्णविधिरन्ते प्रवर्तते, अनेकवर्णविधिः सर्वस्य' (कात० प० पा० ६) अन्तिम वर्ण के ही स्थान में प्रवृत्त
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy