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________________ २०८ कातन्त्रव्याकरणम् प्रकार 'कुण्डम्, अतिजरम्' रूप निष्पन्न होता है | पाणिनि "अतोऽम्" (अ० ७।१।२४) सूत्र द्वारा 'सु-अम्' प्रत्ययों को 'अम्' आदेश तथा "अतो गुणे" (अ० ६।१।९७) से पररूप करते हैं । इस प्रकार कार्यसंख्या की दृष्टि से साम्य होने पर भी कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र से दो कार्य किए हैं, जबकि पाणिनि को दो सूत्र करने पड़ते हैं। अतः कातन्त्र में लाघव स्पष्ट है। [रूपसिद्धि] १.कुण्म् । कुण्ड + सि, अम् । प्रकृत सूत्र द्वारा 'सि-अम्' का लोप, मु-आगम | "आगम उदनुबन्यः स्वरादन्त्यात् परः" (२।१।६) से अन्तिम स्वर (डकारोत्तरवर्ती अकार) के बाद उसकी प्रवृत्ति । २. अतिजरम् । अतिजर + सि, अम् । प्रकृत सूत्र से 'सि-अम्' का लोप तथा 'मु' आगम ।।१६३। १६४. अन्यादेस्तु तुः [२।२।८] [सूत्रार्थ] अन्यादिगणपठित नपुंसकलिङ्गवाले शब्दों से परवर्ती 'सि-अम्' प्रत्ययों का लोप तथा 'तु' आगम भी होता है ।।१६४। [दु० वृ०] अन्यादेर्गणान्नपुंसकलिङ्गात् परयोः स्यमोर्लोपो भवति, तुरागमश्च । अन्यत्, अन्यतरत्, इतरत्, कतरत्, कतमत्। तुशब्दोऽसंबुद्धिनिवृत्त्यर्थः । हे अन्यत् ।। १६४। [दु० टी०] अन्या० । पूर्वेण म्वागमे प्राप्ते तदपवादस्तुरागमः । अन्यादिरयं सर्वनामान्तर्गणः पञ्चसंख्यापरिच्छिन्न एवावसीयते, तत्र वृत्करणात् । 'अन्य-अन्यतर-इतर-डतरइतम' । अत्र त्रीणि लिङ्गानि । डतर-डतमौ तमादिपरिपठितौ प्रत्ययौ, अर्थात् प्रकृत्यन्तौ "यत्तदेकेम्पो द्वयोरेकस्य निर्धारणे उतरो वा बहूनां जाती इतमः"। तौ किम इति । तेन ‘यतरत्, यतमत्, ततरत्, ततमत्' इत्याद्युदाहर्तव्यम् । कथम् ‘एकतरत्' न भवति, 'गणकृतमनित्यम्' (कात० प० २९) इति न्यायाद् 'व्यवस्थितवा- स्मरणाद्
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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