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________________ २०॥ कातन्त्रव्याकरणम् गया है । यह ज्ञातव्य है कि कातन्त्र में प्रथमा- एकवचन का प्रत्यय 'सि' माना गया है, जबकि पाणिनि 'सु' प्रत्यय पढ़ते हैं। पाणिनीय व्याकरण में 'सु-अम्' का लोपविधायक सूत्र है - "स्वमोनपुंसकात्" (अ० ७।१।२३)। [रूपसिद्धि] १. पयः। पयस् + सि, अम् । प्रकृत सूत्र से सिलोप । 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' (कात० ५० ५२) के न्यायानुसार प्रत्ययलक्षण के बल से "अन्त्वसन्तस्य चाधातोः सौ" (२।२।२०) से जो दीघदिश प्राप्त होता है, उसका इस सूत्र से निषेध हो जाता है तथा "रेफसोर्विसर्जनीयः" (२।३।६३) से विसगदिश होता है । अम्प्रत्यय में लोपमात्र होता है। २. तत् । तद् + सि, अम् । प्रकृत सूत्र से सिलोप, "विरामव्यानादावुक्तम्" (२।३।६४) से अतिदेश के कारण "वा बिरामे" (२।३।६२) से द् को त् आदेश । यहाँ लोप होने के बाद प्रत्ययलक्षण से "त्यदादीनाम विभक्तो" (२।३।२९) से प्राप्त दकार के स्थान में अकारादेश का प्रकृत सूत्र से निषेध हो जाता है । ३. सुसखि । सुसखि + सि, अम् । प्रकृत सूत्र द्वारा सि-अम् का लोप, प्रत्ययलक्षण के अनुसार “सख्युश्च" (२।२।२३) से प्राप्त 'अन्' का इस सूत्र से निषेध ।। १६२ । १६३. अकारादसंबुद्धौ मुश्च [२।२।७] [सूत्रार्थ] नपुंसकलिङ्ग वाले अकारान्त शब्द से परवर्ती 'सि-अम्' प्रत्ययों का लोप तथा असंबुद्धि के परे रहते 'मु' आगम भी होता है ।। १६३ । [दु० वृ०] अकारान्तान्नपुंसकलिङ्गात् परयोः स्यमोर्लोपो भवति, मुरागमश्चासंबुद्धौ । कुण्डम्, अतिजरम् । असंबुद्धाविति किम् ? हे कुण्डे ! ||१६३। [दु० टी०] अका० । मुरित्युकारो लिङ्गस्य “आगम उदनुबन्धः स्वरादन्त्यात् परः" (२।११६) इति प्रतिपत्त्यर्थः, अन्यथा स्यमोरादेशे “अकारो दीर्घ घोषवति"
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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