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________________ नामवतुष्टपाप्यावे वितीयः सविपादः १८९ ग्रहणे नानर्षकस्य' (व्या० प० वृ० ८६,१) इति न्यायस्य प्रवेशाद् यत्र केवलसार्थकानुकरणं तत्र प्रकृतिवदनुकरणमित्यस्य विषय इति । अत्र तु सार्थकनिरर्थकानुकरणे केवलसार्थकत्वाभावेनार्थवद्ग्रहणस्य विषयो नास्तीति । अर्थपदार्थानुकरणमिति । अर्थ एव पदार्थवाच्यो यस्य शब्दस्य तस्यानुकरणमित्यर्थः । शब्दपदार्थ इति । शब्दश्चासौ पदार्थश्चेति शब्दपदार्थ : शब्दस्वरूपवाच्यस्यानुकरणमित्यर्थः । बहुव्रीही तु शब्दपदार्थशब्देनानुकरणशब्द एवोच्यते,नहि तस्यान्यदनुकरणमस्तीति संक्षेपः ।।१५७। [समीक्षा] 'सखि + टा, सखि + डे' इस अवस्था में दोनों ही व्याकरणों के अनुसार टा को ना तथा इकार को गुणादेश नहीं होता है । फलतः 'सख्या, सख्ये' रूप निष्पन्न होते हैं । कातन्त्रकार इकारान्त शब्दों की अग्निसंज्ञा करते हैं - "इदुदग्निः"(२।१।८) तथा पाणिनि ने इनकी 'घि' संज्ञा की है - "शेषो ध्यसखि" (अ० १।४।७)। 'सखि' शब्द के इकारान्त होने के कारण सखि शब्द की या सखि-शब्दस्थ इकार की उक्त संज्ञा प्राप्त होती है, परन्तु पाणिनि ने 'असखि'- पद के पाठ से घिसंज्ञा का तथा कातन्त्रकार ने "न सखिष्टादावग्निः" (२१२।१) सूत्र बनाकर 'सखि' शब्द की अग्निसंज्ञा का निषेध किया है । अन्तर यह है कि कातन्त्रकार की 'अग्नि' संज्ञा अन्वर्थ है, जबकि पाणिनि की घिसंज्ञा हस्तचेष्टा की तरह संकेतबोधिका । [रूपसिद्धि] १. सख्या। सखि +टा | "इदुदग्निः" (२।१।८) से प्राप्त सखिशब्दस्थ इकार की अग्निसंज्ञा का प्रकृत सूत्र से निषेध हो जाने पर "इवर्णो यमसवर्णे न च परो लोप्यः" (१।२।८) से इकार को यकारादेश । २. सख्ये। सखि + उ । यहाँ पर पूर्ववत् अग्निसंज्ञा के निषेध से गुणाभाव होने पर इकार को यकारादेश ।। १५७। १५८. पतिरसमासे [२।२।२] [सूत्रार्थ] समासाभाव की अवस्था में 'टा' आदि स्वरादि प्रत्ययों के पर में रहने पर पतिशब्दस्थ इकार की 'अग्नि' संज्ञा नहीं होती है ।।१५८।
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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