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________________ १४० कातन्त्रव्याकरणम् [वि० प०] अदो० । अद इति षष्ठ्यादिलोपः, सूत्रत्वात् । अमुनेति पुंसा नपुंसकेन वेत्यर्थः । अमुयेति । अदस् – त्यदाद्यत्वम् (२।३।२९), स्त्रियामादा (२।४।४९), टौसोरे (२।१।३८), अयादेशः (१।२।१२), "अदसः पदे मः" (२।२।४५) इति मत्वम्, "उत्वं मात्" (२।३।४१) इति उत्वम् ।। १३३। [क० च०] अदो० । अद इति षष्ट्यादिलोप इत्यादि । उसो लोप इत्यर्थः । 'मु' इति आदेशो नाशक्यते, स्वरादिप्रकृतेः स्वराद्यादेशस्य युक्तार्थत्वात् । नन्वत्र चकारः किमर्थः ? आदेशे कृते नादेशस्य पूर्वेणैव सिद्धत्वात् । नैवम्, सन्निपातलक्षणत्वान्न स्यात् । न चाग्रे गुणः क्रियताम् । त्यदाद्यत्वे साध्यस्य सिद्धिरिति वाच्यम् । घोषवति दीर्घ 'अमुना' इति स्यात् ।। १३३। [समीक्षा] 'अदस् + टा' इस अवस्था में कातन्त्रकार 'अदस्' को 'अमु' और 'टा' को 'ना' आदेश करके अमुना' प्रयोग निष्पन्न करते हैं, जबकि पाणिनि ने अकार को उकार, दकार को मकार तथा टा को ना - आदेश करके अमुना' शब्द सिद्ध किया हैं - "अदसोऽसेर्दादु दो मः" (अ० ८।२।८०)। इस प्रकार कार्यसंख्या की दृष्टि से उभयत्र साम्य है। [रूपसिद्धि] १. अमुना । अदस् + टा । "त्यदादीनाम विभक्तौ" (२।३।२९) से स् को अ, "अकारे लोपम्" (२।१।१७) से पूर्ववर्ती अकार का लोप, प्रकृत सूत्र से 'अद' को ‘अमु' तथा 'टा' को 'ना' आदेश ।। १३३ । १३४. इरेदुरोज्जसि [२११।५५] [सूत्रार्थ] लिङ्ग = प्रातिपदिक के अन्त्यावयव इकार के स्थान में एकार तथा उकार के स्थान में ओकार आदेश होता है, जस् प्रत्यय के पर में रहने पर ।। १३४ |
SR No.023087
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1998
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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