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कातन्त्रव्याकरणम् एक अन्य स्थान में कलापचन्द्रकार ने 'तृन्' आदि कृत्प्रत्ययों के रचयिता का नाम स्पष्ट रूप में ‘वररुचि' ही लिया है और यह भी कहा है कि 'तृन्' आदि प्रत्ययों (विधिसूत्रों) के रचयिता वररुचि को तथा शर्ववर्मा को एक मानकर दुर्गसिंह ने उनकी व्याख्या की है । यहाँ ‘एकबुद्धि' शब्द का तात्पर्य प्रक्रियानिर्देशों की समानता से है - "वररुचिना तृनादिकं पृथगेवोक्तम्, ततश्च वररुचिशर्ववर्मणोरेकबुद्ध्या दुर्गसिंहेनोक्तम् इति" (क० च० २।१।६८)।
युधिष्ठिर मीमांसक ने संभावना की है कि महाराज विक्रम के पुरोहित कात्यायनगोत्रज वररुचि ने कृदन्त भाग की रचना की होगी । वररुचि नामक एक अन्य विद्वान् ने कृत्सूत्रों की वृत्ति लिखी है | इस ग्रन्थ का हस्तलेख लालभाई-दलपतभाई भारतीसंस्कृतिविद्यामन्दिर, अहमदाबाद में उपलब्ध है । इस वृत्ति के अन्त में पाठ है – “इति पण्डितवररुचिविरचितायां कृवृत्तौ षष्ठः पादः समाप्तः" । कृत्सूत्रकार वररुचि से इनका भिन्न होना इसलिए भी प्रमाणित होता है कि उन्होंने दुर्गसिंह की तरह वृत्ति के प्रारम्भ में 'वृक्षादिवदमी' आदि श्लोक को भी उद्धृत किया है।
कातन्त्रपरिशिष्ट और आचार्य श्रीपतिदत्त लाघव अभिप्रेत होने के कारण शर्ववर्मा ने जिन शब्दों का साधुत्व नहीं दिखाया, परन्तु दुर्गसिंह ने अपनी वृत्ति में तथा टीका में 'च-बा-तु-अपि' शब्दों के व्याख्यानबल से उन्हें सिद्ध किया है । उन शब्दों के तथा उनसे भिन्न भी कुछ शब्दों के साधनार्थ श्रीपतिदत्त ने जो सूत्र बनाए, उन्हें कातन्त्रपरिशिष्ट के नाम से जाना जाता है । इन सूत्रों पर ग्रन्थकार ने वृत्ति भी लिखी है । इसके प्रारम्भ में उन्होंने महेश विष्णु को नमस्कार किया है, जिससे उन्हें वैष्णवमतानुयायी कहना उचित होगा -
संसारतिमिरमिहिरं महेशमजमक्षरं हरिं नत्वा।
विविधमुनितन्त्रदृष्टं ब्रूमः कातन्त्रपरिशिष्टम् ॥ इस ग्रन्थ में केवल ७ प्रकरण और ७३० सूत्र हैं - (१) सन्धिप्रकरण में १४२, (२) नामप्रकरण में १०१, (३) कारकप्रकरण में ११२, (४) षत्वप्रकरण में ५१, (५) णत्वप्रकरण में ३७, (६) स्त्रीत्वप्रकरण में १०५ तथा (७) समासप्रकरण में १८२ । ऐसी मान्यता है कि समासप्रकरण की रचना करने के बाद श्रीपतिदत्त का निधन हो गया, जिससे अग्रिम प्रकरणों की रचना नहीं हो सकी ।