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प्रास्ताविकम्
कातन्त्रपरिशिष्ट के सम्पादक श्रीगुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य के अनुसार श्रीपतिदत्त के संबन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि किसी समय श्रीपतिदत्त ने कलापतन्त्र के परमज्ञाता दुर्गसिंह के समीप जाकर अध्यापनार्थ उनसे आग्रह किया । दुर्गसिंह ने अब्राह्मण समझकर उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की । फिर भी गुरुभक्त श्रीपतिदत्त ने दुर्गसिंह की मृत्तिकामयी मूर्ति बनाकर प्रतिदिन एकान्त में उनका पूजन और उनके समक्ष अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। जब उन्होंने इस प्रकार कलापव्याकरण के रहस्य को समझ लिया तो इसकी सूचना दुर्गसिंह को दी । प्रसन्न होकर दुर्गसिंह ने कहा कि तुम अपने ग्रन्थ में कभी मेरे मत का खण्डन मत करना, नहीं तो व्याघ्र तुम्हें खा जायगा । श्रीपतिदत्त ने एक स्थान में ' इति दुर्गमतं निरस्तम्' लिखा, इसके फलस्वरूप उन्हें व्याघ्र खा गया । इसके विपरीत जो विद्वान् श्रीपतिदत्त को ब्राह्मण मानते हैं, उनके अनुसार उक्त किंवदन्ती निराधार है ( द्र० - कात० परि० - भूमिका, पृ० २ ) ।
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यदि दुर्गसिंह के साथ कातन्त्र परिशिष्टकार का कोई घनिष्ठ सम्बन्ध प्रमाणित हो जाए तो इन्हें दुर्गसिंह का समकालिक कहना होगा । दुर्गसिंह का समय ६-७ वीं शताब्दी माना जाता है ( द्र०, संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण, पृ० १५९-६६) । कातन्त्र परिशिष्ट की टीकाएँ
परिशिष्ट- सूत्रों पर श्रीपतिदत्त के अतिरिक्त भी कुछ आचार्यों ने वृत्तिग्रन्थ लिखे हैं । इनमें गोपीनाथ की प्रबोधनाम्नी वृत्ति मुद्रित है । रामचन्द्र ने कलापतन्त्रतत्त्वबोधिनी, शिवराम चक्रवर्ती ने परिशेषसिद्धान्तरत्नाङ्कुर, गोविन्द पण्डित ने परिशिष्टटीका तथा विद्यासागर ने भी कोई व्याख्यान लिखा था । रामचन्द्र ने अपनी व्याख्या विकृत = विरुद्ध या विरल मतिवालों के बोधनार्थ लिखी थी । अतः उसका नाम तत्त्वबोधिनी रखा था । उन्होंने कहा भी है
प्रणम्य श्रीनाथपदारविन्दम् अज्ञानसंमोहतमोभिदापहम् । कलापतन्त्रस्य च तत्त्वबोधिनीं कुर्वे कृती श्रीद्विजरामचन्द्रः॥
विद्यासागर ने कातन्त्रपरिशिष्ट के पूर्ववर्ती व्याख्यानों को तारागण तथा अपने व्याख्यान को चन्द्र बताया है। अर्थात् उनका अभिमत है कि अन्धकार से व्याप्त आकाश में अगणित तारागणों के रहने पर भी चन्द्रमा को ही देखकर जैसे चकोर आनन्दित होता है, वैसे ही विद्वज्जन मेरे व्याख्यान से सन्तुष्ट होंगे -